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पंचसंग्रह : १० इसमें भी नामकर्म की अपेक्षा अल्प प्रकृतियां होने से पहले मोहनीयकर्म की संवेध प्ररूपणा प्रारम्भ करते हैं। उसकी भूमिका रूप में अनुक्रम से बंध, उदय और सत्तास्थानों का वर्णन किया जाता है। मोहनीय कर्म के बंधस्थान
दुगइगवीसा सत्तरस तेरस नव पंच चउर ति दु एगो। बंधो इगिदुग चउत्थ य पणटुणवमेसु मोहस्स ॥१६॥ शब्दार्थ-दुगइगवीसा-बाईस और इक्कीस, सत्तरस-सत्रह, तेरसतेरह, नव पंच चउर ति दु एगो-नौ, पांच, चार, तीन, दो, एक, बंधोबंधस्थान, इगिदुग चउत्थ-पहले, दूसरे, चौथे, य--और, पणठणवमेसुपांचवें, आठवें, नौवें में, मोहस्स-मोहनीय कर्म के ।
गाथार्थ-बाईस, इक्कीस, सत्रह, तेरह, नौ, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृति रूप बंधस्थान होते हैं । जो क्रमशः पहले, दूसरे, (तीसरे) चौथे, पांचवें, (छठे, सातवें) आठवें और नौवें गुणस्थान में होते हैं।
विशेषार्थ-गाथा में मोहनीय कर्म के बंधस्थान और गुणस्थानापेक्षा उनके स्वामियों का निर्देश किया है। किन्तु अतिसंक्षेप में होने से उनका सुगमता से बोध नहीं होता है । जिससे उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
'दुगइगवीसा......... ति दु एगो' इन पहले और दूसरे पाद के साथ 'बंधो इगिदुग........... मोहस्स' इन तीसरे और चौथे पाद का सम्बन्ध करके इस प्रकार अर्थ समझना चाहिये कि मोहनीयकर्म के दस बंधस्थान हैं। उनमें से पहला बंधस्थान बाईसप्रकृतिक है और वह पहले मिथ्यात्वगुणस्थान में होता है। दूसरा इक्कीस प्रकृति रूप बंधस्थान दूसरे गुणस्थान में, तीसरा सत्रहप्रकृतिक तीसरे और चौथे गुणस्थान में, चौथा तेरह प्रकृति का पांचवें गुणस्थान में, पांचवां नौ प्रकृति का छठे, सातवें और आठवें गुणस्थान में, छठा पांच प्रकृति का, सातवां चारप्रकृतिक, आठवां तीनप्रकृतिक, नौवां दोप्रकृतिक और
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