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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५०,१५१
३३६ उनको पहले के सिवाय शेष पांच संहनन और पहले के सिवाय शेष पांच संस्थान और अप्रशस्त विहायोगति का भी बंध नहीं होता है। क्योंकि ये अनुत्तरविमानवासी देव सम्यग्दृष्टि हैं और सम्यग्दृष्टि उक्त प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं तथा आनतादि देवों के लिये जो तेईस प्रकृति बंध के अयोग्य कही हैं, उनको भी अनुत्तरदेव नहीं बांधते हैं। इस प्रकार से कुल मिलाकर अनुत्तरविमानवासी देवों के उनचास (४६) प्रकृतियाँ बंध-अयोग्य हैं। जिससे उनको चौथे गुणस्थान में इकहत्तर प्रकृतियाँ बंधती हैं।
इस प्रकार से देवमतियोग्य बंधप्रकृतियाँ जानना चाहिये। अब शेष रही तिर्यंचगति, मनुष्यगति सम्बन्धी बंधप्रकृतियों का निर्देश करते हैं। तिर्यंच और मनुष्यगति योग्य बंधप्रकृति
पज्जत्ता बंधंति उ देवाउमसंखवासाऊ ॥१५०॥ तित्थायवउज्जोयं नारयतिरिविगलतिगतिगेगिदी।
आहार थावरचऊ आउ णासंखपज्जत्ता ॥१५॥ शब्दार्थ-पज्जत्ता-पर्याप्त, बंधंति-बांधते हैं, उ-और, देवाउं-देवायु को, असंखवासाऊ~-असंख्यात वर्षायुष्क ।
तित्थायवउज्जोयं-तीर्थकरनाम, आतप, उद्योत, नारयतिरिविगलतिगतिग-नरकत्रिक, तियंचत्रिक, विकलत्रिक, एगिदी-एकेन्द्रियजाति, आहारआहारकद्विक, थावरचऊ-स्थावरचतुष्क, आउ-आयु, णासंखपज्जत्ताअसंख्यात वर्षायुष्क अपर्याप्त बंध नहीं करते हैं ।
गाथार्थ-असंख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्त तिर्यंच और मनुष्य देवायु का बंध करते हैं ।
असंख्य वर्षायुष्क अपर्याप्त तीर्थंकरनाम, आतप, उद्योत, नरकत्रिक, तिर्यचत्रिक, विकलत्रिक, एकेन्द्रियजाति, आहारकद्विक स्थावरचतुष्क और आयु का बंध नहीं करते हैं ।
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