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________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८५,८६,८७ १७१ क्रमशः सामान्य केवली और तीर्थंकर केवली को जानना चाहिए। ये दोनों उदयस्थान केवलिसमुद्घात में कार्मणकाययोग में रहते तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में होते हैं। इन दोनों उदयस्थानों का एक-एक भंग होता है। इस प्रकार से अभी तक केवली के आठ, नौ, बीस, और इक्कीस प्रकृतिक इन चार उदयस्थानों का कथन करने के बाद अब जो उदयस्थान कहे जाने वाले हैं उनमें होने वाले भंगों के जानने के लिये सामान्य केवली को जितने संस्थान और स्वर का उदय संभव है उनका निर्देश करते हैं:___'संठाणेसु सव्वेसु होंति दुसरावि केवलिणो' अर्थात् सामान्य केवली के सभी संस्थान संभव हैं तथा वे दुःस्वर वाले भी होते हैं तथा -'वि-अपि' शब्द से सुस्वर वाले भी होते हैं । अर्थात् उनको दुस्वर का भी और सुस्वर का भी उदय होता है । किन्तु तीर्थंकर केवली के तो एक समचतुरस्र संस्थान और सुस्वर का ही उदय होता है । अतएव पूर्वोक्त बीसप्रकृतिक उदयस्थान में प्रत्येक, उपधात, औदारिकद्विक, छह संस्थान में से एक संस्थान और प्रथम संहनन-वज्रऋषभनाराचसंहनन इन छह प्रकृतियों का प्रक्षेप करने से छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है और यह उदयस्थान केवली समुद्घात में दूसरे, छठे और सातवें समय में वर्तमान औदारिकमिश्रयोगी सामान्य केवली को होता है । यहाँ छह संस्थान के छह भंग होते हैं । ___ तीर्थंकर केवली के पूर्वोक्त इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान में प्रत्येक आदि छह प्रकृतियों का प्रक्षेप करने से सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इन सत्ताईस प्रकृतियों का उदय समुद्रघात के दूसरे, छठे और सातवें समय में वर्तमान औदारिकमिश्रयोगी तीर्थंकर भगवान को होता है। तीर्थंकर भगवान को समचतुरस्रसंस्थान का ही उदय होने से यहाँ एक भंग होता है । शेष अट्ठाईस प्रकृतिक आदि उदयस्थान पहले 'पराघायखगइजुत्ता अडवीसे' इत्यादि गाथा द्वारा कहे गये हैं, वही यहाँ भी समझ लेना For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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