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सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५६, ६०
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शुभ-अशुभ और अयश: : कीर्ति के साथ चार भंग होते हैं । सूक्ष्म और साधारण नाम के बंध के साथ भी यशःकीर्ति नामकर्म का बंध नहीं होता है । इस प्रकार बादर, पर्याप्त, प्रत्येक का बंध करने पर स्थिरास्थिर, शुभाशुभ और यशः कीर्ति अयशः कीर्ति के आठ भंग, बादर, पर्याप्त, साधारण का बंध करने पर स्थिरास्थिर, शुभाशुभ और अयशः कीर्ति के साथ भी चार भंग, इसी प्रकार सूक्ष्म, पर्याप्त, प्रत्येक तथा सूक्ष्म, पर्याप्त और साधारण के साथ भी चार-चार भंग होते हैं । इस प्रकार पच्चीस प्रकृतिक बंध के बीस भंग होते हैं । अर्थात् पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान बीस प्रकार से होता है । इनमें से ईशान स्वर्ग तक के देव तो आदि के आठ भंगों से पच्चीस प्रकृतिक बंध करते हैं । क्योंकि वे साधारण या सूक्ष्म एकेन्द्रिययोग्य बंध नहीं करते हैं और संख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य, तिर्यंच बीसों भंग द्वारा पच्चीस प्रकृतियों का बंध करते हैं ।
उन्हीं पच्चीस प्रकृतियों को आतप के साथ करने पर छब्बीस प्रकृतिक बंध होता है । मात्र यहाँ आतप के स्थान पर विकल्प से उद्योत नाम का भी प्रक्षेप करना चाहिये । क्योंकि पर्याप्त एकेन्द्रिय योग्य बंध कहने पर उद्योत का भी बंध होता है। इसके सोलह भंग होते हैं । यानि छब्बीस प्रकृतियों का बंध सोलह प्रकार से होता है और वह आतप के साथ स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ और यशः कीर्तिअयशः कीर्ति की चालना करने से होता है । आतप और उद्योत के गंध के साथ सूक्ष्म और साधारण का बंध नहीं होता है, जिससे तदाश्रित विकल्प भी नहीं होते हैं । इन सोलह भंगों से छब्बीस प्रकृतियों का बंध मनुष्य, तियंच और ईशान स्वर्ग तक के देव करते हैं । असंख्यात वर्ष की आयुवाले युगलिक देवगति में ही जाने वाले होने से यहाँ संख्यातवर्ष की आयुवाले मनुष्य- तिर्यंच का ग्रहण करना चाहिये ।
इस प्रकार एकेन्द्रिययोग्य तीन बंधस्थान और उनके कुल चालीस भंग जानना चाहिये। अब द्वीन्द्रिययोग्य बंधस्थानों का प्रतिपादन करते हैं ।
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