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________________ १२० पंचसंग्रह : १० द्वीन्द्रियादि योग्य बंधस्थान तग्गइयाइदुवीसा संघयणतसंग तिरियपणुवीसा। दूसर परघाउस्सासखगइ गुणतीस तीसमुज्जोवा ॥१॥ शब्दार्थ-तग्गइयाइदुवीसा- वह गति आदि बाईस, संघयणतसंगसंहनन, श्रस और अंगोपांग, तिरियपणुवीसा-तिर्यंचयोग्य पच्चीस, दूसरदुःस्वर, परघाउस्सासखगइ-पराघात, उच्छ्वास, विहायोगति, गुणतीसउनतीस, तीसमुज्जोवा-उद्योत के साथ तीस । __ गाथार्थ-तद्गति--तियंचगति आदि बाईस, संहनन, त्रस और अंगोपांग के साथ तिर्यंचयोग्य पच्चीस प्रकृतियां होती हैं। दुःस्वर, पराघात, उच्छ्वास और विहायोगति के साथ उनतीस एवं उद्योत के साथ तीस होती हैं। विशेषार्थ-गाथा में द्वीन्द्रियादि के बंधस्थानों को बतलाया है। जो इस प्रकार हैं तिर्यंचगति आदि पूर्व में कही गई बाईस प्रकृतियों को यहाँ भी ग्रहण करना चाहिये । इसके लिये ग्रन्थकार आचार्य ने 'तग्गइयाई दुवीसा' पद दिया है । अतएव 'तग्गयणुपुग्विजाइ थावरमाईय' इत्यादि गाथा द्वारा जो अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य तेईस प्रकृतियां कही हैं, वे ही स्थावरनाम के सिवाय बाईस यहाँ ग्रहण करना चाहिये तथा जब स्थावरनाम कम किया तो उसके सहचारी सूक्ष्म और साधारण नाम भी दूर करके उसके स्थान पर बादर और प्रत्येक नाम को जोड़ना चाहिये । तत्पश्चात् उनमें सेवार्तसंहनन, त्रस नाम एवं औदारिक अंगोपांग ये तीन प्रकृतियां और जोड़ना चाहिये। तब द्वीन्द्रिय तिर्यंच योग्य पच्चीस प्रकृतियां होती हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, द्वीन्द्रियजाति, औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर, औदारिक अंगोपांग, हुण्ड-संस्थान, सेवार्तसंहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, अपर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति और निर्माण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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