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पंचसंग्रह : १०
जुतं - अध्रुवत्रिक सहित देवेसाइच क — देवों में आद्य चतुष्क, तिरिएसुतिर्यंचों में, अतित्थमिच्छसंताणि— तीर्थंकरनाम के बिना, मिथ्यात्व संबन्धी सत्तास्थान |
गाथार्थ - प्रथम सत्तास्थान हीन प्रथम सत्तास्थान चतुष्क नरकगति में होता है । अध्रुवत्रिक युक्त उक्त तीन स्थान मिथ्यात्व में होते हैं । देवों में आद्यचतुष्क और तिर्यंचों में तीर्थकरनाम के बिना मिथ्यात्व संबन्धी सत्तास्थान होते हैं ।
विशेषार्थ- पूर्वोक्त नामकर्म के सत्तास्थानों में से कौन-कौन किस गति में पाये जाते हैं, इसका संकेत गाथा में किया है
'पढमं पढमगहीणं नरए' अर्थात् नरकगति में प्रथम सत्ताचतुष्क में से पहला तेरानवै प्रकृतिक सत्तास्थान के बिना बानवे, नवासी और अठासी प्रकृतिक ये तीन सत्तास्थान होते हैं । तेरानव प्रकृतिक सत्तास्थान न होने का कारण यह है कि वह तीर्थकरनाम और आहारकचतुष्क सहित होता है और इन दोनों की सत्ता वाला कोई भी जीव नरकगति में उत्पन्न नहीं होता है । जिससे तेरानवे का सत्तास्थान नरकगति में होता ही नहीं है । तथा
मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में प्रथम सत्तास्थानचतुष्क में से तेरानवै प्रकृतिक सत्तास्थानहीन तीन और अध्रुव संज्ञा वाले तीन इस प्रकार कुल छह सत्तास्थान होते हैं - 'मिच्छमि अधुवतियजुत्तं ।' इसका तात्पर्य यह हुआ कि मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में ह२, ८६,८८,८६,८० और ७८ प्रकृतिक इस तरह छह सत्तास्थान अनेक जीवों की अपेक्षा होते हैं । किन्तु ९३ प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होता है । क्योंकि आहारकचतुष्क और तीर्थंकरनाम इन दोनों की संयुक्त सत्तावाला कोई भी जीव मिथ्यात्वगुणस्थान में जाता नहीं है । इनके सिवाय शेष सत्तास्थान क्षपकश्रेणि में होते हैं । किन्तु मिथ्यादृष्टि के नहीं होने से उनका निषेध किया है । तथा
देवगति में प्रथम सत्तास्थानचतुष्क (६३, ९२,८६,८८ प्रकृतिक)
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