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________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६७ १८५ शब्दार्थ-एगिदिएसु-एकेन्द्रियों में, पढमदुर्ग-आदि के दो, वाऊतेऊसुवायुकायिक और तेजस्कायिक जीवों में, तइयगमणिच्च-तीसरा अध्र व सत्तास्थान, अहवा-अथवा, पणतिरिएसु-पंचेन्द्रिय तियंचों में, तस्संतेगिदियाइसु-एके न्द्रियादि से लेकर होता है । गाथार्थ-एकेन्द्रियों में आदि के दो और वायुकायिक, तेजस्कायिक में तीसरा अध्रुव सत्तास्थान होता है । अथवा एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तिर्यंचों तक होता है। विशेषार्थ- 'एगिदिएसु पढमदुगं' अर्थात् पृथ्वी, अप् और वनस्पति रूप एकेन्द्रियों में छियासी और अस्सी प्रकृति रूप ये दो अध्र व संज्ञा वाले सत्तास्थान होते हैं तथा तीसरा अठहत्तर प्रकृति रूप अध्र व संज्ञा वाला सत्तास्थान तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों में होता है। अन्य जीवों में नहीं होता है । अथवा तेज और वायुकाय में मनुष्यद्विक की उद्वलना कर वहां से निकलकर एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रिय में उत्पन्न हो तो वहाँ भी जब तक मनुष्यद्विक का बंध न करे तब तक अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। अथवा तेज और वायुकाय के जीव अपने भव से निकलकर तिर्यंच में ही उत्पन्न होते हैं, मनुष्य आदि में उत्पन्न नहीं होते हैं। इसीलिये एकेन्द्रिय से लेकर तिर्यंच पंचेन्द्रिय तक में उत्पन्न हुओं को अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान होने का संकेत किया है। इस प्रकार से अध्र व संज्ञा वाले सत्तास्थानों के स्वामियों को जानना चाहिये । अब चारों गति में सम्भव सत्तास्थानों का निरूपण करते हैं। चतुर्गति में प्राप्त नामकर्म के सत्तास्थान पढमं पढमगहीणं नरए मिच्छंमि अधुवतियजुत्तं । देवेसाइचउक्कं तिरिएसु अतिथमिच्छसंताणि ॥७॥ शब्दार्थ--पढमं--प्रथम सत्तास्थान चतुष्क, पढमगहीणं-प्रथम सत्तास्थान हीन, नरए-नरकगति में, मिच्छमि-मिथ्यात्व गुणस्थान में, अधुवति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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