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पंचसंग्रह : १०
साधारण, नरकगति, नरकानुपूर्वी और उद्योत ये प्रकृतियां नामत्रयोदश कहलाती हैं । क्षपकश्रेणि के नौवें गुणस्थान के संख्यात भाग जाने के बाद इन तेरह प्रकृतियों का सत्ता में से नाश होता है और इन तेरह में से भी आदि की स्थावर से लेकर साधारण नाम तक दस प्रकृतियों का उदय और उदीरणा मात्र तिर्यंचगति में ही होती हैं ।
यद्यपि गाथा में इन दस प्रकृतियों के लिये उदय, उदीरणा की अपेक्षा ऐसा कुछ भी नहीं कहा है । परन्तु गाथा में आगत 'य–च’ शब्द अनेक अर्थ वाला होने से एवं युक्ति से 'उदय - उदीरणा आश्रयी' इस पद का ग्रहण किया हुआ समझना चाहिए | क्योंकि आदि की उक्त दस प्रकृति बंध और सत्ता की अपेक्षा तो अन्य जीवों के भी योग्य हैं। जिससे स्थावरादि दस प्रकृतियों का बंध और सत्ता मनुष्यादि अन्य जीवों को भी होती हैं किन्तु मात्र तियंचों को ही उनका बंध और सत्ता होती है यह नहीं समझना चाहिये । लेकिन इन दसों प्रकृतियों की उदय उदीरणा मात्र तियंचगति में ही होती है । इसीलिये उदय - उदीरणा की अपेक्षा ये दस प्रकृतियां मात्र तियंचगतियोग्य हैं ।
ऐसा कहने का प्रयोजन है कि पूर्व में यथायोग्य उन उन स्थानों पर एकान्त तिर्यंचयोग्य प्रकृतियां का संकेत तो किया, लेकिन उनके नाम नहीं बताये थे । इसलिये जब प्रसंगानुसार नामत्रयोदशक कहने का अवसर आया तो उन नामों को बताते हुए एकान्त तिर्यंचप्रायोग्य दस प्रकृतियों के नामों का भी उल्लेख कर दिया, जिनका नौवें गुणस्थान में सत्ताविच्छेद होता है ।
अब पूर्वोक्त अध्रुव संज्ञा वाले नामकर्म के तीन सत्तास्थान के स्वामियों का निर्देश करते हैं ।
अध्रुव सत्तास्थानों के स्वामी
एगिदिए पढमदुगं वाऊतेऊसु तइयगमणिच्चं ।
अहवा
पणतिरिए
तस्संतेगिदियाइ
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