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________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २५७ है। उनतीस प्रकृति के बंधक तिर्यंच, मनुष्य, देव व नारक हैं तथा यह विकलत्रिक, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य व देवगति प्रायोग्य है। तीस प्रकृति के बंधक मनुष्य, देव, तिर्यंच और नारक हैं तथा यह विकलत्रिक, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, देवगति प्रायोग्य बंधस्थान है ।1 इस प्रकार से मिथ्यादृष्टिगुणस्थान संबन्धी नामकर्म के बंधस्थानों का विवरण जानना चाहिये । अब क्रमप्राप्त उदयस्थानों का निरूपण करते हैं__ नामकर्म के बीस, इक्कीस और चौबीस से लेकर इकत्तीस प्रकृतिक तक आठ एवं नौ प्रकृतिक व आठ प्रकृतिक ये बारह उदयस्थान होते हैं। उनमें से मिथ्या दृष्टिगुणस्थान में इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतोस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक ये नौ उदयस्थान होते हैं। ये उदयस्थान किस तरह और उनके कितनेकितने प्रकार होते हैं, आदि समस्त वर्णन पूर्व में विस्तार से किया जा चुका है। लेकिन संक्षेप में पुन: आवश्यक होने से यहाँ संकेत करते हैं--- मिथ्यात्वगुणस्थान में आहारकसंयत, वैक्रियसंयत एवं केवली सम्बन्धी उदयस्थान और उनके भंग नहीं होते हैं। जिससे इस गुणस्थान के कुल सात हजार सात सौ इकानवै (७७६१) भंगों में से आहारक संयत के पाँच उदयस्थानों के सात, वैक्रियसंयत के अट्ठाईस, उनतीस १ इसी प्रकार से दिगम्बर साहित्य में भी नाम कम के इन बंधस्थानों की प्रायोग्यता का विचार किया गया है । देखिये गो० कर्मकाण्ड गाथा ५२२, . २ दिगम्बर साहित्य में भी नामकर्म के इन्हीं प्रकृति संख्या वाले नामकर्म के बारह उदयस्थान माने हैं। देखिए गो० कर्मकाण्ड गा० ५६२ । ३ दिगम्बर साहित्य में भी मिथ्यात्वगुणस्थान में इसी प्रकार के नौ उदय स्थान बताये हैं । देखिए पंचसंग्रह सप्ततिका अधिकार गा० ४०२ । ४ इसी अधिकार को गाथा ७३ से ६१ तक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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