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________________ ( २० ) इस सत्पद प्ररूपणा को करने के बाद प्रकरण के उपसंहार रूप में गुणस्थानों और मार्गणास्थानभेदों में बंधयोग्य प्रकृतियों की संख्या और नामों का उल्लेख करके अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए श्रुतदेवी को नमस्कार करके ग्रन्थकार ने अधिकार समाप्ति का संकेत किया है— समईविभवाणुसारेण पगरणमेयं समासओ भणियं । उपसंहार : आभार प्रदर्शन इस सप्ततिका प्रकरण की समाप्ति के साथ पंचसंग्रह जैसे महान ग्रन्थ के सम्पादन के दायित्व की पूर्णता होने से सन्तोष का अनुभव कर रहा हूँ कि अपनी अक्षमताओं के रहते हुए भी यह कार्य कर सका । विवेचन आदि का कार्य ज्ञात ही है । मैंने शक्ति पंचसंग्रह जैसे महान् ग्रन्थ के सम्पादन, कितना कठिन है, यह उसके अभ्यासियों को भर पूरी सावधानी रखी है, फिर भी यदि कहीं स्खलना हो गई हो तो विद्वज्जन संशोधित करने की कृपा करें । सम्पादन, विवेचन के लिए जिन आचार्यों, विद्वानों के साहित्य का उपयोग किया, उनके प्रति सविनम्र आभारी हूं । उनके परोक्ष मार्गदर्शन ने मुझे प्रति समय प्रोत्साहित किया है । उनका उपकार सदैव स्मरणीय रहेगा। आवश्यक ग्रन्थों की उपलब्धि के लिये ब्रज मधुकर पुस्तकालय ब्यावर के अधिकारियों को साधुवाद देता हूँ और मुद्रण कार्य का यथोचित संशोधन आदि दायित्व निर्वाह के लिए भाई श्री श्रीचन्दजी सुराना तथा डा० बृजमोहन जी जैन धन्यवादार्ह हैं । साथ ही इस बात के लिए प्रसन्नता है कि परोक्षतावश समय-समय पर दृष्टि - भिन्नता रहने पर भी मनभिन्नता का कोई प्रसंग नहीं आया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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