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________________ ( १६ :) बंध-उदय सहचारी, तीर्थंकरनाम की बंध सहभावी, नरकगति-बंधसहचारी, अपर्याप्त बंधयोग्य, त्रस, पर्याप्त एकेन्द्रियादि के बंधयोग्य प्रकृतियों को बतलाया है। तत्पश्चात् नामकर्म के बंधस्थानों और प्रत्येक गति, गुणस्थान, एकेन्द्रियादि योग्य बंधस्थानों का कथन किया है। फिर गुणस्थानों में नामकर्म की बंध और विच्छेद योग्य प्रकृतियों का उल्लेख करके बंध विषयक प्ररूपणा पूर्ण की। इसी प्रकार उदय विषयक वर्णन प्रारम्भ करने के लिए उदयसम्बन्धी विशेष कथनीय, नामकर्म के उदयस्थान तथा गति, गुणस्थान, इन्द्रियभेद, केवली भगवान की अपेक्षा उदयस्थानों का उल्लेख करके नामकर्म के उदयस्थानों का वर्णन पूर्ण किया है। अनन्तर क्रमप्राप्त सत्तास्थानों की प्ररूपणा प्रारम्भ की और चतुर्गतियों, गुणस्थानों में सत्तास्थानों को बतलाकर बंधादि स्थानों के संवेध का विचार किया है। इसके बाद ज्ञानावरणादि प्रत्येक की उत्तरप्रकृतियों के बंध, उदय और सत्ता प्रकृतियों के संवेध का गुणस्थानापेक्षा विचार किया है। इसी प्रसंग में मोहनीय कर्म के संवेध का विस्तार से विचार करने के लिए उसमें पद प्रमाण, गुणस्थानापेक्षा उदयपद संख्या, उपयोग, लेश्या, योग की अपेक्षा उदयपद और उनके भंगों का भी उल्लेख किया है। इसी तरह पूर्व में किये गये नामकर्म के वर्णन से शेष रहे विशेष विवेचन का निरूपण किया है। यह निरूपण गुणस्थान, जीवस्थान, गति, इन्द्रिय भेदों को माध्यम बनाकर किया है । __इसके बाद जीवस्थान भेदों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, वेदनीय, गोत्र, आयु, मोहनीय और नामकर्म के बंधादि स्थानों का विचार किया है। फिर मार्गणास्थान के भेदों में बंधादि स्थानों की सत्पद प्ररूपणा की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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