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पंचसग्रह : १०
अब इनके संवेध का निर्देश करते हैं-तिर्यंचगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों के बंधक नारक को उपर्युक्त पांचों उदयस्थान होते हैं यानि ऊपर कहे स्वयोग्य पांचों उदयस्थानों में वर्तमान नारकों को तिर्यंचगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध होता है । उस समय उनको बानवै और अठासी प्रकृतिक सत्तास्थान में से कोई एक सत्तास्थान होता है। तीर्थंकरनाम की सत्ता वाले नारक तिर्यचगतियोग्य बंध नहीं करते हैं, जिससे तिर्यंचगति योग्य बंध में नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होता है। इसी तरह उद्योतनाम के साथ तिर्यंचगतियोग्य तीस प्रकृतियों का बंध करने पर भी पांचों उदयस्थान होते हैं तथा बानवै और अठासी प्रकृतिक सत्तास्थान में से कोई भी सत्तास्थान होता है। . मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का भी बंध करने पर पूर्वोक्त पाँचों उदयस्थान होते हैं । परन्तु उन प्रत्येक उदयस्थान में बानवे, नवासी, अठासी प्रकृतिक ये तीनों सत्तास्थान संभव हैं। उनमें से बानवै और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान तो उनतीस प्रकृतियों के बंध में जिस प्रकार से कहे हैं, उसी तरह से जानना चाहिये और नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान पहले कहा है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि नारक को प्रारम्भ के अन्तर्मुहुर्त पर्यन्त होता है और उस समय वे मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का ही बंध करते हैं । अर्थात् मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों के बंध में नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान मिथ्यादृष्टि नारकों में होता है । क्योंकि वे पर्याप्त होने के बाद अवश्य सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं और उस समय तीर्थकरनामयुक्त मनुष्यगतियोग्य तीस प्रकृतियों का बंध करते हैं।
तीर्थकरनामयुक्त मनुष्यगतियोग्य तीस प्रकृतियों का बंध करते नारक को अपने-अपने सभी उदयस्थानों में मात्र नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है।
इस प्रकार से नरकगति संबन्धी बंधादि स्थान जानना चाहिये। अब तिर्यंचगति में बंधादि स्थानों का विचार करते हैं। Jain Education International
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