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________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ ३०१ तिर्यंचगति-तिर्यंचों में तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस प्रकृतिक ये छह बंधस्थान होते हैं । अर्थात् तिर्यच भिन्नभिन्न गति योग्य तेईस प्रकृतिक आदि छह बंधस्थानों में से किसी भी बंधस्थान को बांधते हैं। ___ इनमें से एकेन्द्रिय तेईस, पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीस प्रकृतिक बंधस्थानों को बांधते हैं, विकलेन्द्रिय और अपर्याप्त असंज्ञी भी इन्हीं पांच बंधस्थानों को बांधते हैं। मात्र पर्याप्त असंज्ञी और पर्याप्त-अपर्याप्त संज्ञी तिर्यंच यथायोग्य रोति से उपर्युक्त छहों बंधस्थानों का बंध करते हैं। यहां यह ध्यान रखना चाहिये कि प्रथम गुणस्थान में देव या नरक गति योग्य बंध पर्याप्त अवस्था में ही होता है। मात्र अपर्याप्तावस्था में देवगतियोग्य बंध सम्यग्दृष्टिपने में होता है। इन बंधस्थानों और उनके भंगों का विचार जैसा पूर्व में किया है तदनुरूप यहाँ भी समझना चाहिये और किसको कौनसा बंधस्थान होता है, और वह किस गति योग्य है, इसका विचार करके भंगों को समझ लेना चाहिये। उदयस्थान नौ इस प्रकृतिसंख्या वाले हैं—इक्कीस और चौबीस से लेकर इकत्तीस तक । ये उदयस्थान एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और असंज्ञी-संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय योग्य हैं। यह उन-उनके उदयस्थानों का कथन करने के प्रसंग में कहा जा चुका है । तदनुसार यहाँ भी समझ लेना चाहिये। - सत्तास्थान पाँच हैं-बानवे, अठासी, छियासी, अस्सी, अठहत्तर प्रकृतिक । इनका विचार भी पूर्व की तरह यहां भी कर लेना चाहिये । तिर्यंचों में क्षपकश्रेणि और तीर्थंकरनाम की सत्ता का अभाव होने से तीर्थकर संबन्धी कोई भी सत्तास्थान नहीं होता है। __ अब संवेध का निर्देश करते हैं-तेईस प्रकृतियों के बंधक तिर्यंच को इक्कीस प्रकृतिक आदि पूर्वोक्त नौ उदयस्थान होते हैं। उनमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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