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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६
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अब गति आदि में नामकर्म के बंध आदि स्थानों का विचार करते हैं ।
नरकगति - नारकों के उनतीस और तीस प्रकृतिक ये दो बंधस्थान होते हैं। उनमें से उनतीस प्रकृतिक स्थान नारकों को तियंचगतियोग्य और मनुष्यगतियोग्य बंध करने पर बंधता है तथा उद्योतनाम युक्त तीस प्रकृतिक तिर्यंचगतियोग्य बंध करने पर एवं तीर्थंकरनाम युक्त तीस प्रकृतिक मनुष्यगति योग्य बंध करने पर बंधता है । इन बंधस्थानों में जो भंग पूर्व में कहे हैं, वही यहाँ भी समझना चाहिये, यानि मनुष्य और तिर्यंच दोनों गति योग्य उनतीस के बंध के ४६०८ और तिर्यंचगति योग्य तीस के बंध के ४६०८ और मनुष्य योग्य तीस के बंध के आठ, इस प्रकार तिर्यंचगति योग्य दो बंधस्थान के ह२१६ और मनुष्यगति योग्य दो बंधस्थान के ४६१६ भंग होते हैं ।
नारकों के उदयस्थान पांच हैं- इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस प्रकृतिक । इन उदयस्थानों के भंग नारक सामान्य के उदयस्थानों के समान जानना चाहिये ।
सत्तास्थान तीन होते हैं - बानवे, नवासी और अठासी प्रकृतिक | इनमें से बानव और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान तो जैसे सामान्यतः सभी को होते हैं उसी प्रकार नारकों के भी होते हैं । नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान तीर्थंकर नामकर्म का बंध करने के बाद मिथ्यात्व में जाकर नारकों में उत्पन्न हुओं को होता है । तेरानव प्रकृतिक सत्तास्थान नरकगति में नहीं होता है । क्योंकि तीर्थंकर और आहारक की सत्ता रहते कोई भी जीव नरक में उत्पन्न नहीं होता है ।
१. श्रेणिकादि की तरह नरकायु का बंध करने के पश्चात क्षायिक सम्यक्त्व उपार्जन कर तीर्थंकरनाम को निकाचित कर सम्यक्त्वयुक्त भी नारकों में जाते हैं । ऐसे मनुष्यों को तीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है और उनकी पाँचों उदयस्थानों में एक नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान होता है ।
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