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________________ १६२ पंचसंग्रह : १० इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान मिथ्यादृष्टि विकलेन्द्रियों और तिर्यंच पंचेन्द्रियों को होता है। इनके सिवाय अन्य देव, नारक या युगलिक तेईस प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं। तेईस प्रकृतियों का बंध मिथ्यादृष्टि को ही होने से सर्वत्र मिथ्यादृष्टि विशेषण दिया है। यह विवेचन तो हुआ तेईस प्रकृति के बंधक के नौ उदयस्थानों का, अब उसी के सत्तास्थानों को बतलाते हैं तेईस के बंधक उपयुक्त समस्त जीवों को सामान्य से बानवे, अठासी, छियासी, अस्सी और अठहत्तर प्रकृतिक ये पांच सत्तास्थान होते हैं। इनमें इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान में वर्तमान समस्त जीवों के पांच में से कोई भी सत्तास्थान हो सकता है। मात्र इक्कीस प्रकृतियों के उदय में वर्तमान तेईस प्रकृतियों के बंधक मनुष्य को अठहत्तर प्रकृतिक के सिवाय शेष चार सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान मनुष्यगति और मनुष्यानुपूर्वी की उद्वलना होने के बाद होता है। मनुष्य को उनकी उद्वलना सम्भव नहीं है, इसलिये मनुष्य को अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होता है। चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान में भी उक्त पांच सत्तास्थान सम्भव हैं। मात्र चौबीस प्रकृतियों के उदय वाले वैक्रियशरीर करते वायुकार्य को अस्सी और अठहत्तर के बिना बानवै, अठासी और छियासी प्रकृतिक ये तीन सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि वैक्रियषट्क और मनुष्यद्विक की तो उसको अवश्य सत्ता है और इसका कारण यह है कि वैक्रियशरीरी को तो साक्षात् अनुभव होता है, अनुभव उदय बिना होता नहीं, जिससे वह उसकी उद्वलना नहीं करता है और उसकी उद्वलना हुए बिना देवद्विक या नरकद्विक की भी उद्वलना नहीं करता है। क्योंकि तथास्वभाव से वैक्रियषट्क की समकाल में उद्वलना होती है और वैक्रियषट्क की उद्वलना होने के बाद ही मनुष्यद्विक की उद्वलना करता है, इससे पूर्व नहीं । इसलिए अस्सी और अठहत्तर प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान वैक्रिय वायुकायिक जीव को नहीं होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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