SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८२ पंचसंग्रह : १. वाले किसी मनुष्य ने क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि होते दर्शनमोहसप्तक का क्षय करना प्रारम्भ किया, उसे अनन्तानुबंधि और मिथ्यात्वमोहनीय का क्षय होने के बाद तेईस का सत्तास्थान और मिश्रमोहनीय का क्षय होने के बाद बाईस प्रकृति का सत्तास्थान होता है। इसी बाईस की सत्ता वाला सम्यक्त्वमोहनीय का क्षय करते चरम ग्रास में वर्तमान पूर्वबद्धायुष्क कोई जीव अपनी आयु पूर्ण हो तो काल भी करता है और काल करके चारों में से किसी भी गति में उत्पन्न होता है और वह अन्तमुहर्त प्रमाण सत्ता में रही हुई सम्यक्त्वमोहनीय की स्थिति को क्षय करके क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है। शास्त्र में कहा है-'पटुवगो य मणुस्सो निट्ठवगो चउसु वि गईसु' अर्थात् क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करने के लिये मिथ्यात्वमोहनीय का क्षय करने की शुरुआत प्रथम संहनन वाला जिनकालिक मनुष्य ही करता है परन्तु सम्यक्त्व-मोहनीय की अंतिम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति क्षय करके चारों गति के जीव क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते हैं। यानि क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त करने का प्रारम्भक मनुष्य है और पूर्णता करने वाले चारों गति के जीव होते हैं। इसलिये मोहनीय कर्म की बाईस प्रकृति की सत्ता चारों गति में होती है । भय और जुगुप्सा सहित आठ प्रकृतिक उदयस्थान क्षायिक और औपशमिक सम्यग्दृष्टि को होता है और भय, सम्यक्त्व-मोहनीय अथवा जुगुप्सा और सम्यक्त्वमोहनीय के साथ आठ प्रकृतिक उदयस्थान क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के होते हैं। सत्तास्थान की भावना सात के उदयस्थान के अनुरूप जानना चाहिये तथा भय, जुगुप्सा और सम्यक्त्वमोहनीय सहित नौ प्रकृतिक उदयस्थान क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के ही होता है। उस नौ प्रकृतिक उदयस्थान में आठ के उदय वाले क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के जो चार सत्तास्थान कहे हैं वे ही चार सत्तास्थान होते हैं। तथा - १ अन्तमुहूर्त प्रमाण स्थिति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy