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________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४२ देसाइसु चरिमुदए इगिवीसा वज्जियाइ संताई। सेसेसु होति पंचवि तिसुवि अपुवंमि संततिगं ॥४२॥ शब्दार्थ-देसाइसु-देशविरत आदि गुणस्थानों में, चरिमुदए–अंतिम उदय में, इगिवीसा-इक्कीस, वज्जियाइ-छोड़कर, संताई-सत्तास्थान, सेसेसु-शेष उदयस्थानों में, होति-होते हैं, पंचवि-पांचों, तिसुवि-तीन में भी, अपुवंमि-अपूर्वकरण गुणस्थान में, संततिगं-तीन सत्तास्थान । गाथार्थ-देशविरत आदि गुणस्थानों में अंतिम उदय में इक्कीस को छोड़कर चार सत्तास्थान होते हैं और पहले के बिना शेष उदयस्थानों में पांचों सत्तास्थान होते हैं। अपूर्वकरण गुणस्थान के तीनों उदयस्थान में तीन-तीन सत्तास्थान होते हैं। विशेषार्थ-'देसाइसु............' देशविरत आदि-देशविरत, प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरत इन तीन गुणस्थानों में अपने-अपने अंतिम उदयस्थान में इक्कीस के सिवाय पूर्व में कहे गये चार-चार सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि अंतिम उदयस्थान सम्यक्त्वमोहनीय सहित होने से क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के ही होता है तथा अपना-अपना पहला उदयस्थान छोड़कर शेष उदयस्थानों में पांच-पांच सत्तास्थान होते हैं। पहला उदयस्थान क्षायिक अथवा औपशमिक सम्यग्दृष्टि के ही होता है और उस उदयस्थान में तो तीन सत्तास्थान ही होते हैं । अपूर्वकरण गुणस्थान में अपने तीन उदयस्थान में तीन-तीन सत्तास्थान होते हैं । पूर्वोक्त संक्षेप का विशेषता के साथ स्पष्टीकरण इस प्रकार है--- मोहनीयकर्म की तेरह प्रकृतियों के बंधक देशविरत के पांच, छह, सात और आठ प्रकृतिक ये चार उदयस्थान होते हैं। देशविरत मनुष्य और तिर्यंच के भेद से दो प्रकार के हैं। उनमें से तिर्यंचों के चारों उदयस्थानों में अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं । अट्ठाईस का सत्तास्थान तो औपशमिक सम्यग्दृष्टि और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के होता है। तिर्यंचों में औपशमिक सम्यक्त्व प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करते पहले गुणस्थान में तीन करण करके जो प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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