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________________ ८४ पंचस ग्रह : १० होता है वही होता है और उसे उस समय अट्ठाईस का सत्तास्थान होता है। संख्यात वर्षायुष्क तिर्यंच के औपशमिक सम्यक्त्व रहते देशविरत गुणस्थान इस तरह प्राप्त होता है-अंतरकरण में वर्तमान कोई औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव देशविरति भी प्राप्त करता है। कोई मनुष्य हो तो सर्वविरति भी प्राप्त करता है। क्योंकि पहले गुणस्थान में तीन करण करके कोई चौथे गुणस्थान में, कोई देशविरतगुणस्थान में और कोई सर्वविरतगुणस्थान में जाता है। इस प्रकार से कोई विशिष्ट परिणाम वाला तिर्यंच औपशमिक सम्यक्त्व के साथ देशविरति प्राप्त करे तो उसे देशविरत गुणस्थान में औपशमिक सम्यक्त्व होता है और मात्र एक अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । शतक वृहच्चूर्णि में कहा है-- उवसमसम्मदिट्ठी अन्तरकरणे ठिओ कोइ देसविरईपि लहइ, कोइ पमत्तापमत्तभावं पि, सासायणो पुण न किंपि लहइन्ति । ___ अर्थात् अन्तरकरण में स्थित कोई औपशमिक सम्यग्दृष्टि देशविरति को, कोई प्रमत्त और अप्रमत्त भाव को भी प्राप्त करता है, परन्तु कोई सासादन भाव को प्राप्त नहीं करता है तथा वेदक सम्यग्दृष्टि के अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं। उनमें से चौवीस का सत्तास्थान अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करने के बाद होता है । क्योंकि चारों गति के संज्ञी पंचेन्द्रिय क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबंधि की विसंयोजना कर सकते हैं। शेष रहे तेईस प्रकृतिक आदि सत्तास्थान तिर्यंचों के नहीं होते हैं। क्योंकि तेईस प्रकृतिक आदि सत्तास्थान क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न करते समय संभव हैं और क्षायिक सम्यक्त्व मनुष्य ही उत्पन्न करते हैं, तिथंच नहीं। ___ यदि कोई यहां शंका करे कि कोई मनुष्य क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न करके तिर्यंच गति में उत्पन्न हो तो उस समय तिर्यंच को भी इक्कीस प्रकृतिक सत्तास्थान संभव हो सकता है तो फिर ऐसा क्यों कहते हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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