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पंचसंग्रह : १० इस प्रकार से दर्शनावरणकर्म के उदयस्थानों का निर्देश करने के बाद अब बन्ध, उदय और सत्तास्थानों के संवेध का कथन करते हैं। दर्शनावरणकर्म का संवेध- .
चउ पण उदओ बंधेसु तिसुवि अब्बंधगेवि उवसंते। नव संतं अट्ठवं उइण्ण संताई चउ खीणे ॥१३।। खबगे सुहुमंमि चउ बंधगंमि अबंधगमि खोणम्मि।
छस्संतं चउरुदओ पंचण्हवि केइ इच्छंति ॥१४॥ शब्दार्थ-चउ पण उदओ-चार और पाँच का उदय, बंधेसु तिसुवितीनों ही बन्धस्थानों में, अब्बंधगेवि-अबंधक में भी, उवसंते-उपशांतमोह गुणस्थान में, नव-नौ, संतं-सत्ता, अद्वैवं-इस प्रकार आठ भंग, उइण्ण संताई-उदय और सत्ता, चउ-चार की, खीणे-क्षीणमोहगुणस्थान में । ___ खवगे-क्षपक श्रेणि में, सुहुमंमि--सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में भी, चउ बंधगंमि-चार के बंध में, अबंधगमि-अबंधक में, खीणम्मि-क्षीणमोह में, छस्संतं-छह की सत्ता, चउरुदओ-चार का उदय, पंचण्हवि-पाँच का भी, केइ --कोई, इच्छंति-मानते हैं ।
गाथार्थ-तीनों ही बंधस्थानों में तथा अबंधक उपशांतमोह गुणस्थान में भी चार और पाँच का उदय तथा नौ की सत्ता होती है, जिससे आठ संवेध भंग होते हैं। चार का उदय और चार की सत्ता क्षीणमोहगुणस्थान में होती है ।
क्षपकश्रेणि में चार के बंधक, सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान तथा अबंधक क्षीणमोहगुणस्थान में छह की सत्ता एवं चार का उदय होता है । कोई आचार्य पाँच का भी उदय मानते हैं।
विशेषार्थ--उक्त दो गाथाओं में दर्शनावरणकर्म के संवेध भंगों का निर्देश किया है
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