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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२
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विशेषार्थ - गाथा में दर्शनावरणकर्म के उदयस्थान और एक अनेक जीवापेक्षा उनके उदय होने के गुणस्थानों का निर्देश किया है जो इस प्रकार है
दर्शनावरणकर्म के दो उदयस्थान हैं - एक साथ एक जीव के चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शनावरण इन चार का उदय होता है अथवा पाँच निद्राओं में से किसी भी एक निद्रा के साथ पाँच का उदय होता है । एक जीव के एक साथ दो आदि निद्राओं का उदय नहीं होता है । इस प्रकार चार का और पाँच' का यह दो उदयस्थान होते हैं । ये दोनों उदयस्थान क्षीणमोहगुणस्थान तक होते हैं ।
इस प्रकार चार प्रकृति का समूह रूप अथवा निद्रा के साथ पाँच का समूह रूप उदयस्थान एक समय में एक जीव की अपेक्षा जानना चाहिये |
अब सामान्यतः अनेक जीवों की अपेक्षा उदयस्थानों का विचार करते हैं
प्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त दर्शनावरणकर्म की 'नवण्ह उदओ' - नौ प्रकृतियाँ उदय में होती हैं और उसके बाद स्त्यानद्धित्रिक का उदय नहीं होने से छह का उदय क्षीणमोहगुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त होता है और द्विचरम समय में निद्रा एवं प्रचला का उदयविच्छेद होने पर चरम समय में चार का उदय होता है— 'छसु चउसु जा खीणो ।'
१. यह विशेष समझना चाहिये कि क्षीणमोहगुणस्थान के चरम समय में निद्रा का उदय न होने से चारप्रकृतिक उदयस्थान ही होता है तथा निद्रा के उदय के साथ पाँच का उदयस्थान कर्मस्तव ग्रन्थ के अभिप्रायानुसार कहा गया है । सत्कर्म ग्रन्थ आदि के अभिप्रायानुसार तो क्षपकश्रेणि और क्षीणमोहगुणस्थान में चक्षुदर्शनावरण आदि चार प्रकृतियों का उदय होता है, निद्रा के साथ पाँच का नहीं ।
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