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पंचसंग्रह : १० और भव्यों के कालान्तर में क्षपकश्र णि मांड़े, तब नौ की सत्ता का विच्छेद संभव होने से अनादि-सात काल है । किन्तु बंध की तरह सत्ता में सादि-सांत भंग संभव नहीं है । क्योंकि नौ के सत्तास्थान का विच्छेद स्त्यानद्धित्रिक का क्षय हो तब क्षपकश्र णि में होता है और क्षपकश्रेणि से प्रतिपात नहीं होने से सादि-सांत भंग संभव नहीं है ।
छह प्रकृतिक सत्तास्थान का काल जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । क्योंकि क्षपकश्रेणि के नौवें गुणस्थान में स्त्यानद्धित्रिक की सत्ता का विच्छेद होने से बारहवें गुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त छह की सत्ता होती है । उसका समुदित काल भी अन्तर्मुहूर्त ही है । क्षपकश्रेणि में मरण नहीं होने से छह की सत्ता का अन्तर्मुहूर्त से कम काल ही नहीं है । जघन्य और उत्कृष्ट काल समान ही है ।
चार की सत्ता का एक समय जितना ही काल है और वह भी बारहवें गुणस्थान का चरम समय है ।
बन्धस्थानों और सत्तास्थानों का
इस प्रकार दर्शनावरण कर्म के काल प्रमाण है ।
अब दर्शनावरणकर्म के उदयस्थानों का प्रतिपादन करते हैं । दर्शनावरणकर्म के उदयस्थान
दंसण सनिद्ददंसणउदओ समयं तु होइ खोणो । जाव पत्तो नवण्ह उदओ छसु चउसु जा खोणो ॥ १२ ॥ शब्दार्थ - दंसण - दर्शनावरणचतुष्क का, सनिद्ददंसण --- निद्रासहित दर्शनावरण का, उदओ – उदय, समयं - एक समय, तु — अथवा, होइ — होता है, जा - पर्यन्त खीणो- क्षीणमोह, जाव – तक, पमत्तो - प्रमत्तसंयत, नवहं नौ का, उदओ - उदय, छसु चउसु - छह और चार का, जातक, खोणो-- क्षीणमोह |
गाथार्थ - दर्शनावरणचतुष्क अथवा निद्रा सहित दर्शनावरण का एक साथ उदय क्षीणमोह पर्यन्त होता है । प्रमत्तसंयतगुणस्थान तक नौ का तथा छह और चार का उदय क्षीणमोह तक होता है ।
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