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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८५,८६,८७
१७३ उदयस्थान के छह संस्थान और विहायोगति द्विक के विकल्प होने से बारह भंग होते हैं और तीर्थंकर केवली संबन्धी तीस प्रकृतिक उदयस्थान का पूर्ववत् एक ही भंग होता है।
सामान्य केवली सम्बन्धी उनतीस प्रकृतियों को स्वर युक्त होने पर तीस प्रकृतिक और तीर्थकर संबन्धी तीस प्रकृतिक को स्वर युक्त करने पर इकतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। दोनों उदयस्थान अनुक्रम से जिन्होंने न तो समुद्घात करना हो और न योग का रोध करना प्रारंभ किया है ऐसे सामान्य केवली और तीर्थंकर केवली को होते हैं। इनमें से तीस प्रकृतिक उदयस्थान में छह संस्थान, विहायोगतिद्विक और स्वरद्विक का परावर्तन करने पर चौबीस भंग होते हैं और इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान का पूर्ववत् मात्र एक ही भंग होता है। क्योंकि तीर्थंकर केवली के प्रथम संस्थान, शुभ विहायोगति और सुस्वर रूप प्रशस्त प्रकृतियों का ही उदय होता है।
सब मिलाकर सामान्य सयोगिकेवली और तीर्थकर सयोगिकेवली के बासठ (६२) भंग होते हैं । परन्तु उनमें से सामान्य केवली के छब्बीस प्रकृति के उदय के छह, अट्ठाईस प्रकृति के उदय के बारह, उनतीस प्रकृति के उदय के बारह और तीस प्रकृति के उदय के चौबीस, कुल चौवन भंग सामान्य मनुष्य के उदयस्थानों में भी होने से उनको अलग नहीं गिना है। शेष आठ प्रकृति के उदय का एक, नौ प्रकृति के उदय का एक, बीस प्रकृति के उदय का एक, इक्कीस प्रकृति के उदय का एक, सत्ताईस प्रकृति के उदय का एक, उनतीस प्रकृति के उदय का एक तथा तीस और इकत्तीस प्रकृतियों के उदय का एकएक भंग, कुल आठ भंग जो सामान्य मनुष्यों के उदयस्थानों में नहीं गिने हैं, परमार्थतः उन्हीं को विशेष भंग के रूप में जानना चाहिये। इन विशेष आठ भंगों में के बीस और आठ इन दो उदयस्थानों के दो भंग सामान्य केवली के और शेष छह भंग तीर्थंकर केवली के हैं।
इस प्रकार से केवली भगवन्तों में संभव उदयस्थान और उनके
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