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________________ १७४ पंचसंग्रह : १० भंगविकल्प जानना चाहिये । अब ऊपर जो अट्ठाईस से लेकर इकत्तीस प्रकृतिक तक के चार उदयस्थान केवली में कहे हैं उनके लिये आचार्य कुछ विशेष बतलाते हैं तित्थयरे इगतीसा तोसा सामण्णकेवलीणं तु 1 खीणसरे गुणतीसा खीणुस्सासम्मि अडवीसा ॥८८॥ शब्दार्थ - तित्थयरे - तीर्थंकर को, इगतीसा - इकत्तीस प्रकृतिक, तीसातीस प्रकृतिक, सामण्णकेवलीणं - सामान्य केवली को, तु— और, खोणसरेस्वर का उदय क्षीण होने पर, गुणतोसा -- उनतीस प्रकृति, argare उच्छ्वास का उदय क्षीण होने पर, अडवीसा - अट्ठाईस प्रकृतिक । गाथार्थ - तीर्थंकर को इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान और सामान्य केवली को तीस प्रकृतिक होता है । स्वर का उदय क्षीण होने पर उनतीस और उच्छ्वास का उदय क्षीण होने पर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । विशेषार्थ - औदारिककाययोग में वर्तमान तीर्थंकर केवली को इकत्तीस प्रकृतियों का उदय होता है और जब वे वचनयोग का रोध करते हैं तब सुस्वर नामकर्म का उदयविच्छेद होता है, जिससे तीस प्रकृतियों का उदय होता है । तत्पश्चात् उच्छ्वास का रोध करने पर श्वासोच्छ्वास नामकर्म का उदयविच्छेद होता है, जिससे उनतीस प्रकृतियों का उदय होता है । तथा औदारिककाययोग में वर्तमान सामान्य केवली के तीस प्रकृतियों का उदय होता है और जब वे वचनयोग का रोध करते हैं तब सुस्वर या दु:स्वर का उदय न होने पर उनतीस प्रकृतियों का उदय होता है और उसके बाद जब उच्छ्वास का रोध करते है तब श्वासोच्छ्वास नाम का उदय कम होने पर अट्ठाईस प्रकृतियों का उदय होता है । समस्त उदयस्थानों के भंगों की संख्या सात हजार सात सौ इक्यानवे ( ७७६१) होती है । जो इस प्रकार जानना चाहियेएकेन्द्रियों के ४२, विकलेन्द्रियों के ६६, सामान्य तिर्यच पंचेन्द्रिय के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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