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________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८३ १६१ आदेय-यशःकीति, ६. दुर्भग-आदेय-अयशःकीर्ति, ७. दुर्भग-अनादेययशःकीर्ति, ८. दुर्भग-अनादेय-अयशःकीर्ति । तत्पश्चात् शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त को पराघात और प्रशस्त विहायोगति का उदय मिलने पर सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पूर्ववत् आठ भंग होते हैं। ____ इसके बाद उच्छ्वासपर्याप्ति से पर्याप्त को श्वासोच्छ्वास का उदय मिलाने पर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ पूर्ववत् आठ भंग होते हैं । अथवा शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त को उच्छ्वास का उदय होने से पूर्व किसी को उद्योत का भी उदय होने से अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसके भी पूर्ववत् आठ भंग होते हैं और कुल मिलाकर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान के सोलह भंग होते हैं। तदनन्तर भाषापर्याप्ति से पर्याप्त के उच्छ्वास सहित अट्ठाईस प्रकृतियों के उदय में सुस्वर का उदय मिलाने पर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी पूर्ववत् आठ भंग होते हैं। अथवा प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त को स्वर का उदय होने के पहले किसी को उद्योत का उदय होता है और उसके उदय में भी उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पूर्ववत् आठ भंग होते हैं और कुल मिलाकर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान के सोलह भंग होते हैं। इसके बाद सुस्वर सहित उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत के उदय को मिलाने पर तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पूर्व की तरह आठ भंग जानना चाहिये। सब मिलाकर वैक्रिय तिर्यंचों के पाँच उदयस्थानों के छप्पन (५६) भंग होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यचों के उनचास सौ बासठ (४६६२) भंग १ उच्छ्वास का उदय होने के पूर्व किसी को भी स्वर का उदय नहीं . होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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