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________________ १६२ पंचसंग्रह : १० जानना चाहिये तथा एकेन्द्रियादि समस्त तिर्यंचों के कुल मिलाकर पाँच हजार सत्तर (५०७०) भंग होते हैं । इस प्रकार से तिर्यंचगति संबन्धी समस्त उदयस्थानों का वर्णन जानना चाहिये | अब मनुष्यों के उदयस्थानों का विचार करते हैं । यद्यपि तिर्यंच पंचेन्द्रियों के उदयस्थानों के साथ मनुष्यों के भी उदयस्थानों का सामान्य से उल्लेख किया है । परन्तु उनका अलग से भी उल्लेख किया जाना आवश्यक होने से पृथक् निर्देश करते हैं । सामान्य मनुष्यों में यह पाँच उदयस्थान होते हैं - इक्कीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक । इनमें से इक्कीस, छब्बीस और अट्ठाईस प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान जैसे तियंच पंचेन्द्रियों के लिये कहे हैं, वैसे यहां भी समझना चाहिये । मात्र तिर्यंचगति आनुपूर्वी के स्थान पर मनुष्यगति-आनुपूर्वी कहना चाहिये और भंग भी पूर्ववत् ( तियंच पंचेन्द्रियों के समान) संख्या प्रमाण कहना चाहिये । उनतीस और तीस प्रकृतिक उदयस्थान भी तियंचों की तरह हैं । मात्र उद्योत नाम के उदयरहित कहना चाहिये । क्योंकि मनुष्यों में उद्योत का उदय वैक्रिय और आहारक शरीरी संयत के सिवाय अन्य किसी को नहीं होता है । इसलिये तिर्यच संबन्धी उनतीस और तीस प्रकृतिक उदयस्थानों के भंगों में से उद्योत के उदय से होने वाले भंगों को कम करने पर मनुष्यों के उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान में पाँच सौ छियत्तर और तीस प्रकृतिक उदयस्थान के ग्यारह सौ बावन भंग होते हैं । सब मिलाकर सामान्य मनुष्य के छब्बीस सौ दो (२६०२ ) भंग होते हैं । वैक्रिय मनुष्यों के पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस प्रकृतिक ये पाँच उदयस्थान होते हैं । उनमें मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियशरीर, वैक्रिय अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, उपघात, त्रस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येक, सुभग दुर्भग में से एक, आदेय - अनादेय में से एक, यशः कीर्ति - अयशः कीर्ति में से एक, तैजस- कार्मण, वर्णचतुष्क, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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