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पंचसंग्रह : १० तिर्यंचों और मनुष्यों को तथा आहारक शरीर करने पर यति को होते हैं।
विशेषार्थ-गाथा में कतिपय विशिष्ट स्थितियोंगत, मनुष्यों, तिर्यचों के उदयस्थानों का निरूपण किया है--
'तिरिउदय छन्वीसाइ' अर्थात् सामान्य तिर्यंचों के पूर्व में छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृति रूप जो उदयस्थान कहे हैं वे सभी "संघयणविवज्जियाउ" संहनननामकर्म के बिना उत्तर वैक्रिय शरीरी तिरूचों और मनुष्यों तथा आहारक शरीरी यति-संयत को होते हैं। इस सामान्य कथन का तिर्यंचों और मनुष्यों के क्रम से विवरण इस प्रकार है
उत्तर वैक्रिय शरीर करते तिर्यंचों के पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक ये पाँच उदयस्थान होते हैं । वैक्रिय और आहारक शरीर की विकुर्वणा पर्याप्तावस्था में ही होती है, जिससे भवान्तर में जाने पर संभव इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान यहाँ नहीं होता है तथा वैक्रिय और आहारक शरीर में हड्डियां नहीं होने से अस्थिबंध रूप संहनन भी नहीं होता है। जिससे सामान्य तिर्यंचों के जो छब्बीस प्रकृतिक आदि उदयस्थान पूर्व में कहे हैं, उन प्रत्येक में से संहनन नामकर्म को कम करने पर ये पच्चीस प्रकृतिक आदि पाँच उदयस्थान होते हैं। पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान की प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं___ वैक्रियद्विक, समचतुरस्रसंस्थान, उपघात, प्रत्येक, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग-दुर्भग में से एक, आदेयअनादेय में से एक, यशःकीति-अयशःकीर्ति में से एक, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, वर्णचतुष्क और निर्माणनाम । यहाँ सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय और यशःकीर्ति-अयशःकीर्ति के साथ आठ भंग होते हैं । जो इस प्रकार हैं
१. सुभग-आदेय-यशःकीति, २. सुभग-आदेय-अयशःकीर्ति, ३. सुभग-अनादेय-यशःकोति, ४. सुभग-अनादेय-अयशःकीर्ति, ५. दुर्भग
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