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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८३
१५६ वास के साथ उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान के जो पाँच सौ छियत्तर भंग कहे हैं उनको दोनों स्वरों से गुणा करने पर ग्यारह सौ बावन भंग होते हैं। अथवा प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त को स्वर का उदय होने के पहले किसी को उद्योत का उदय होता है। जिससे उसको मिलाने पर भी तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसके पाँच सौ छियत्तर भंग होते हैं और कुल मिलाकर तीस प्रकृतिक उदयस्थान के सत्रह सौ अट्ठाईस (१७२८) भंग होते हैं तथा मतान्तर से आठ सौ चौसठ (८६४) भंग होते हैं।
तत्पश्चात् स्वर सहित तीस प्रकृतियों के उदय में उद्योत का उदय मिलाने पर इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। उसमें स्वर सहित तीस प्रकृतिक उदयस्थान में जिस प्रकार से ग्यारह सौ बावन भंग कहे हैं, वही यहाँ भी जानना चाहिये और मतान्तर से पाँच सौ छियत्तर होते हैं।
इस प्रकार से प्राकृत-सामान्य तिर्यंच पंचेन्द्रिय के भंग जानना चाहिये । अब वैक्रिय शरीर करते तिर्यंच पंचेन्द्रियों के उदयस्थान कहने का अवसर प्राप्त है परन्तु सामान्यत: समान संख्या होने से वैक्रिय शरीर करते तिर्यंचों और मनुष्यों के तथा आहारक शरीर करते यति के उदयस्थानों का निरूपण करते हैं। वैक्रिय और आहारक शरीर सम्बन्धी उदयस्थान
तिरिउदय छन्वीसाइ संघयणविवज्जियाउ ते चेव ।
उदया नरतिरियाणं विउव्वगाहारगजईणं ॥३॥ शब्दार्थ-तिरिउदय-तियंचों के उदयस्थान, छठवीसाई-छब्बीस प्रकृ. तिक आदि, संघयणविवज्जियाउ-संहनन के बिना, ते चेव-वही, उदयाउदयस्थान, नरतिरियाण-मनुष्यों और तिर्यंचों के, विउवगाहारगजईणंवैक्रिय और आहारक शरीर करते यति को ।
__ गाथार्थ-तिर्यंचों के जो छब्बीस प्रकृतिक आदि उदयस्थान __ कहे हैं, संहनन बिना के वे ही उदयस्थान वैक्रिय शरीर करने पर
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