SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १.६६ पंचसंग्रह : १० क्त्व लेकर उनमें कोई उत्पन्न भी नहीं होता है। पूर्व में असंख्यात वर्ष प्रमाण तिर्यच युगलिक की आयु बांधकर कोई मनुष्य क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न करे, आयु पूर्ण कर युगलिक में जाये, वहाँ जाने पर विग्रहगति में उनको इक्कीस प्रकृतियों का उदय होने पर भी देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करता है । कोई भी देव या नारक उपशम सम्यक्त्व लेकर मनुष्य या तिर्यंच में उत्पन्न होता नहीं है । इसीलिये दो सम्यक्त्व ग्रहण किये हैं । पच्चीस प्रकृतियों का उदय आहारक संयत और सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि वैक्रिय तिर्यंचों या मनुष्यों के होता है । छब्बीस प्रकृतियों का उदय क्षायिक सम्यक्त्वी अथवा क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी शरीरस्थ पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों के होता है । सत्ताईस प्रकृतियों का उदय आहारक संयत को एवं सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादष्टि वैक्रिय तिर्यंच मनुष्यों के होता है । अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान अनुक्रम से शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त और उच्छ्वास पर्याप्ति से पर्याप्त क्षायिक सम्यग्दृष्टि या वेदक सम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रिय तियंचों और मनुष्यों तथा आहारक संयत को और सम्यक्त्वी अथवा मिथ्यात्वी वैक्रिय तिर्यंच अथवा मनुष्यों के होता है । तीस प्रकृतियों का उदय सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि अथवा मिश्रदृष्टि तिथंच और मनुष्यों तथा उद्योत के उदय वाले आहारक संयत और वैक्रिय संयत को होता है जो देवगति योग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करते हैं । इकत्तीस प्रकृतियों का उदय सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि उद्योत के उदय वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच को होता है । उपर्युक्त उदय में रहते ऊपर कहे गये वे जीव देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करते हैं । यहाँ यह ध्यान रखना चाहिये कि सातवें गुणस्थान में वर्तमान आहारकशरीरी देवगतियोग्य तीस प्रकृतियों का ही बंध करते हैं । क्योंकि जिनको आहारकद्विक की सत्ता है, वे उसकी बंधयोग्य स्थिति में आहारकद्विकका अवश्य बंध करते हैं । प्रमत्त गुणस्थान में आहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy