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________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६, १०० होते हैं। सामान्य से पच्चीस और छब्बीस प्रकृतियों के बंध में नौ उदयस्थानाश्रयी चालीस-चालीस सत्तास्थान होते हैं। अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान में आठ उदयस्थान इस प्रकार हैं२१, २५, २६, २७, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक । जिनका विवरण इस प्रकार है____ अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध देवगति और नरकगति योग्य इस प्रकार दो तरह का है और उसके बंधक सामान्य से मनुष्य और तिर्यंच हैं। उनमें देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का जब बंध होता है तब भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा उपर्युक्त आठ उदयस्थान संभव है और नरकगति योग्य जब अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध हो तब तीस और इकत्तीस प्रकृतिक यही दो उदयस्थान होते हैं। नरकगतियोग्य दो उदयस्थान कहने का कारण यह है कि नरकगतियोग्य बंध पहले गुणस्थान में ही होता है और वह भी संपूर्ण पर्याप्त अवस्था में होता है और पर्याप्त अवस्था में उक्त दो ही उदयस्थान होते हैं । मिथ्यादृष्टि जीव अपर्याप्त अवस्था में नरक या देवगति योग्य बंध करते नहीं हैं। जिससे मिथ्यादृष्टि के देवगतियोग्य बंध करने पर भी उक्त दो ही उदयस्थान होते हैं। अपर्याप्त अवस्था में देवगति का बंध सम्यग्दृष्टि को होता है। जिससे अपर्याप्तावस्था में संभव इक्कीस प्रकृतिक आदि उदयस्थान चौथे गुणस्थान में होते हैं। पांचवें आदि गुणस्थान तो पर्याप्त अवस्था में ही होते हैं जिससे वहाँ पर्याप्तावस्था में संभव उदयस्थान होते हैं। देव-नरकगति के बंधक पर्याप्त संमूच्छिम तिर्यंच, गर्भज तिर्यंच और गर्भज मनुष्य हैं। देवगति के योग्य अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक को इक्कीस प्रकृतियों का उदय विग्रहगति में वर्तमान क्षायिक सम्यग्दृष्टि या वेदक 'सम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य को होता है। यहाँ युगलिक तिर्यंचों का ग्रहण करना चाहिये। क्योंकि संख्यातवर्ष की आयुवाले तिर्यंच के क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है एवं क्षायिक सम्यJain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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