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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६९, १०० रकद्विक का बंध नहीं होने से वहाँ आहारकशरीरी देवगति योग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करते हैं। इसी तरह वैक्रियशरीरी यति छठे गुणस्थान में अट्ठाईस प्रकृतियों को ही बांधता है । सातवें गुणस्थान में यदि आहारक की सत्ता है तो देवगति-योग्य आहारकद्विक सहित तीस प्रकृतियों को ही बांधता है अन्यथा अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधता है। ___ नरकगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करते मिथ्याष्टि पंचेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्यों को तीस प्रकृतियों का उदय होता है
और इकत्तीस प्रकृतियों का उदय मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रिय तिर्यचों को होता है, जो अशुभ परिणामों के योग से अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करते हैं । नरकगतियोग्य बंध करने वाले पर्याप्त संमूच्छिम तिर्यच, मिथ्यादृष्टि संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज तिर्यंच और मनुष्य होते
अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक को सामान्य से बानवे, नवासी, अठासी और छियासी प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं। उनमें इक्कीस के उदय में वर्तमान देवगति योग्य अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक को बानवै और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं। पच्चीस प्रकृतियों के उदय में वर्तमान अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक आहार कसंयत, वैक्रिय तिर्यंच और वैक्रिय मनुष्यों को बानवै और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान सामान्य से होते हैं।
उनमें आहारकसंयत तो अवश्य आहारकद्विक की सत्तावाला होता है, जिससे उसे बानवै प्रकृति रूप ही सत्तास्थान होता है। उसके सिवाय अन्य तिर्यंच अथवा मनुष्य आहारक की सत्ता वाले भी होते हैं और उसकी सत्ता बिना के भी होते हैं। इसलिये उनको दोनों सत्तास्थान होते हैं। यदि आहारकचतुष्क की सत्ता हो तो बानवै प्रकृतिक अन्यथा अठासी प्रकृतिक सत्तास्थान होता है।
छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतियों का उदय - होने पर भी बान और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान यथायोग्य
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