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पंचसंग्रह : १०
अध्यवसायों की मर्यादा होती है जिनको गुणस्थानों में उस उस प्रकृति के बंधविच्छेद द्वारा बताया है ।
इस प्रकार से गुणस्थानों में नामकर्म के बंधस्थानों को जानना चाहिये | अब पूर्व में जो एकेन्द्रियादि योग्य तेईस प्रकृतिक आदि बंधस्थान कहे हैं उन सबका विचार करते हैं । उनमें से पहले एकेन्द्रिय प्रायोग्य बंधस्थानों का विवेचन करते हैं । एकेन्द्रिय-योग्य बंधस्थान
तग्यणुपुव्विजाई थावरमाईय दूसरविणा । ध्रुवबंधि हुण्डविग्गह तेवीसावज्जथावरए ॥ ५६ ॥ पगईणं वच्चासो होइ गइइंदियाइ आसज्ज । सपराघाऊसासा पणवीस छवीस सायावा ||६०||
शब्दार्थ -- तग्गयणपुग्विजाई - वह गति, आनुपूर्वी और जाति ( तियंचगति, तिचानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति), थावरमाईय - स्थावर आदि, दूसरविहूणा - दु:स्वर हीन, ध्रुवबंधि - ध्रुवबंधिनी नवक, हुण्डविग्गह- हुण्ड संस्थान, औदारिक शरीर, तेवीसा— तेईस, अपज्जथावरए — अपर्याप्त, स्थावर - एकेन्द्रिय योग्य |
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पगईणं - प्रकृतियों का, वच्चासो – फेरफार- परिवर्तन, होइ — होता है, गडइंदियाइ - गति, इन्द्रिय आदि के, आसज्ज - अपेक्षा, सपराधाऊसासापराघात और उच्छ्वास के साथ, पणवीस- -पच्चीस, छवीस - छब्बीस, सायावा - आतप के साथ |
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गाथार्थ - वह गति आदि अर्थात् तियंचगति, तियंचानुपूर्वी, एकेन्द्रिय जाति दुःस्वरहीन स्थावरादि नौ, ध्रुवबंधिनी नामनवक, हुण्डसंस्थान, औदारिक शरीर ये तेईस प्रकृतियां अपर्याप्त स्थावर - एकेन्द्रिय के बंधयोग्य जानना चाहिये ।
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गति और इन्द्रियों की अपेक्षा प्रकृतियों में फेरफार होता है । पराघात और उच्छ्वास के साथ पच्चीस और आतप या उद्योत को मिलाने से छब्बीस प्रकृतियां होती हैं ।
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