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पंचसंग्रह : १०
सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति - अयशः कीर्ति में से एक, निर्माण और तीर्थ
करनाम ।
इन तीस प्रकृतियों को अविरतसम्यग्दृष्टि देव अथवा नारक मनुष्यगतियोग्य प्रकृतियों का बंध करने पर बांधते हैं । यहाँ स्थिरअस्थिर, शुभ -अशुभ और यशः कीर्ति अयशः कीर्ति का परावर्तन करने से आठ भंग होते हैं । सब मिलाकर मनुष्यगतियोग्य तीनों बंधस्थानों के छियालीस सौ सत्रह (४६१७) भंग होते हैं ।
इस प्रकार से मनुष्यगतियोग्य बंधस्थानों का निर्देश करने के बाद अब नरकगतियोग्य बंधस्थानों का निरूपण करते हैं । नरकगतियोग्य बंधस्थान
'अडवीसा नारए एक्का' अर्थात् नरकगतियोग्य एक अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान होता है । यानि नरकगतियोग्य बंध करने पर पर्याप्त गर्भज तियंच अट्ठाईस प्रकृतियां ही बांधते हैं। जिससे नरकगतियोग्य एक ही बंधस्थान है । द्वीन्द्रिययोग्य जो उनतीस प्रकृतियां कही गई हैं उनमें से संहनन नामकर्म कम करके शेष अट्ठाईस प्रकृतियां यहां ग्रहण करना चाहिये । मात्र तियंचगति और तिर्यचानुपूर्वी के स्थान पर नरकगति और नरकानुपूर्वी तथा द्वीन्द्रियजाति के स्थान पर पंचेन्द्रियजाति और औदारिकद्विक के स्थान पर वैक्रियद्विक कहना चाहिये ।
ये अट्ठाईस प्रकृतियां इस प्रकार हैं-नरकद्विक, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियद्विक, तैजस शरीर, कार्मण, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, अप्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति और निर्माण । ये सभी पाप प्रकृतियां होने से इनका एक ही भंग होता है ।
इस प्रकार से नरकगतियोग्य बंधस्थान जानना चाहिये । अब क्रमप्राप्त देवगतियोग्य बंधस्थानों का निरूपण करते हैं ।
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