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________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६२ १२५ एकेन्द्रिययोग्य नहीं तथा तियंचगति, तियंचानुपूर्वी के स्थान पर मनुष्यगति और मनुष्यानुपूर्वी कहना चाहिये । शेष सभी प्रकृतियां जैसी की तैसी हैं तथा तियंचगतियोग्य बंधस्थानों में जो, तीस प्रकृतिक बंधस्थान उद्योत नाम के साथ कहा है, उसे यहाँ तीर्थंकरनाम के साथ कहना चाहिए । अर्थात् उद्योत के बजाय तीर्थंकरनाम ग्रहण करना चाहिये । अन्य बंधस्थान में पूर्वोक्त के सिवाय अन्य कोई अन्तर नहीं है । अब इन बंधस्थानों के भंगों का निरूपण करते हैंअपर्याप्त मनुष्ययोग्य पच्चीस प्रकृतियों को बांधने पर पूर्व की तरह एक ही भंग होता है । इन पच्चीस प्रकृतियों के बंधक मनुष्य, तिर्यच ही होते हैं, देव और नारक नहीं। क्योंकि वे पर्याप्त, गर्भज मनुष्य योग्य बंध करते हैं । संमूच्छिम मनुष्ययोग्य बंध करने पर भी एक पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान ही होता है । उनतीस प्रकृतियों का बंध करने पर पूर्व की तरह संहनन, संस्थान आदि का परावर्तन करने पर छियालीस सौ आठ (४६०८) भंग होते हैं । इन उनतीस प्रकृतियों के बंधक चारों गति के जीव होते हैं । तीर्थकरनाम को मिलाने पर वे उनतीस प्रकृतियां तीस प्रकृति हो जाती हैं । इस तीस प्रकृतिक बंधस्थान में संस्थान समचतुरस्र, संहनन वज्रऋषभनाराच, प्रशस्त - विहायोगति, सुभग, आदेय और सुस्वर रूप पुण्य प्रकृतियां ही होती हैं किन्तु उनकी प्रतिपक्षी प्रकृतियां नहीं होती हैं । क्योंकि यह बंधस्थान सम्यग्दृष्टि देव नारकों के होता है और सम्यक्त्व होने पर अशुभ संहनन आदि उपर्युक्त प्रकृतियां नहीं बंधती हैं । उन तीस प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं-. मनुष्यगतिद्विक, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकद्विक, तैजस, कार्मण, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर अस्थिर में से एक, शुभ-अशुभ में से एक, सुभग, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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