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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६२
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एकेन्द्रिययोग्य नहीं तथा तियंचगति, तियंचानुपूर्वी के स्थान पर मनुष्यगति और मनुष्यानुपूर्वी कहना चाहिये । शेष सभी प्रकृतियां जैसी की तैसी हैं तथा तियंचगतियोग्य बंधस्थानों में जो, तीस प्रकृतिक बंधस्थान उद्योत नाम के साथ कहा है, उसे यहाँ तीर्थंकरनाम के साथ कहना चाहिए । अर्थात् उद्योत के बजाय तीर्थंकरनाम ग्रहण करना चाहिये । अन्य बंधस्थान में पूर्वोक्त के सिवाय अन्य कोई अन्तर नहीं है ।
अब इन बंधस्थानों के भंगों का निरूपण करते हैंअपर्याप्त मनुष्ययोग्य पच्चीस प्रकृतियों को बांधने पर पूर्व की तरह एक ही भंग होता है । इन पच्चीस प्रकृतियों के बंधक मनुष्य, तिर्यच ही होते हैं, देव और नारक नहीं। क्योंकि वे पर्याप्त, गर्भज मनुष्य योग्य बंध करते हैं । संमूच्छिम मनुष्ययोग्य बंध करने पर भी एक पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान ही होता है ।
उनतीस प्रकृतियों का बंध करने पर पूर्व की तरह संहनन, संस्थान आदि का परावर्तन करने पर छियालीस सौ आठ (४६०८) भंग होते हैं । इन उनतीस प्रकृतियों के बंधक चारों गति के जीव होते हैं ।
तीर्थकरनाम को मिलाने पर वे उनतीस प्रकृतियां तीस प्रकृति हो जाती हैं । इस तीस प्रकृतिक बंधस्थान में संस्थान समचतुरस्र, संहनन वज्रऋषभनाराच, प्रशस्त - विहायोगति, सुभग, आदेय और सुस्वर रूप पुण्य प्रकृतियां ही होती हैं किन्तु उनकी प्रतिपक्षी प्रकृतियां नहीं होती हैं । क्योंकि यह बंधस्थान सम्यग्दृष्टि देव नारकों के होता है और सम्यक्त्व होने पर अशुभ संहनन आदि उपर्युक्त प्रकृतियां नहीं बंधती हैं । उन तीस प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं-.
मनुष्यगतिद्विक, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकद्विक, तैजस, कार्मण, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर अस्थिर में से एक, शुभ-अशुभ में से एक, सुभग,
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