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पंचसंग्रह : १० (४०), और विकलेन्द्रियों के इक्यावन (१७+ १७+१७=५१) मिलाने पर सम्पूर्ण तिर्यंचगति के नौ हजार तीन सौ आठ (६३०८) भंग होते
इस प्रकार तियंचगतियोग्य बंधस्थानों का वर्णन जानना चाहिये। अब मनुष्य गति एवं नरक गति योग्य बांधस्थानों का निरूपण करते हैं । मनुष्य-नरकगति योग्य बंधस्थान
तिरिबंधा मणुयाणं तित्थगरं तीसमंति इह भेओ।
संघयणूणिगुतीसा अडवीसा नारए एक्का ॥६२॥ शब्दार्थ-तिरिबंधा-तिर्यंच पंचेन्द्रिययोग्य बंधस्थान, मणुयाणंमनुष्यों के भी, तित्थगरं-तीर्थंकर, तीसमंति-तीस प्रकृतिक स्थान में, इह-यहाँ, भेओ-अंतर, संघयणूणिगुतीसा-संहनन से न्यून उनतीस प्रकृतिक, अडवीसा-- अट्ठाईस प्रकृतिक, नारए--नारक योग्य, एक्का-एक । __ गाथार्थ-तिर्यंच पंचेन्द्रिययोग्य जो बंधस्थान हैं, वे सभी मनुष्ययोग्य भी हैं । मात्र यहाँ तीस प्रकृतिक बंधस्थान में तीर्थंकरनाम कहना चाहिये, यह अन्तर है। उनतीस प्रकृतिक संहनन नाम से हीन अट्ठाईस प्रकृतिक होता है और वह एक ही बंधस्थान नारकयोग्य होता है।
विशेषार्थ-गाथा में मनुष्य और नरकगति योग्य बंधस्थानों को बतलाया है। उनमें से मनुष्यगतियोग्य बंधस्थान इस प्रकार जानना चाहिये
तिर्यंच पंचेन्द्रिययोग्य पच्चीस, उनतीस, तीस प्रकृतिक रूप जो बंधस्थान पूर्व में कहे हैं वे सभी मनुष्यगतियोग्य बंध करने पर भी होते हैं-'तिरिबंधा मणुयाणं' । यद्यपि एकेन्द्रियादि को भी सामान्यतः तिर्यंच कहा है तो भी मनुष्यों के पंचेन्द्रिय होने से गाथोक्त तिरिबंधा पद से पंचेन्द्रिय तिर्यंच सम्बन्धी बंधस्थान जानना चाहिये, किन्तु
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