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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६१
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तिर्यंचगतिद्विक, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकद्विक, तैजस, कार्मण, शरीर नाम, छह संस्थान में से एक संस्थान, छह संहनन में से एक संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तअप्रशस्त विहायोगति में से एक, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिरअस्थिर में से एक, शुभ-अशुभ में से एक, सुभग-दुर्भग में से एक, सुस्वर - दुःस्वर में से एक, आदेय - अनादेय में से एक, यशः कीर्ति-अयश:कीर्ति में से एक और निर्माण । संस्थान, संहनन आदि विकल्प से मिलने वाली प्रकृतियों की चालना करने पर चार हजार छह सौ आठ (४६०८) भंग होते हैं । वे इस प्रकार -
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छह संस्थान को छह संहनन का गुणा करने पर छत्तीस (३६), उनको प्रशस्त अप्रशस्त विहायोगति के साथ गुणा करने पर बहत्तर (७२), स्थिर - अस्थिर के साथ बहत्तर को गुणा करने पर एक सौ चवालीस (१४४), इनको शुभ-अशुभ युग्म से गुणा करने पर दो सौ अठासी (२८८), सुभग- दुभंग से इनको गुणा करने पर पांच सौ छियत्तर (५७६), सुस्वर- दुःस्वर से इन पाँच सौ छियत्तर को गुणा करने पर ग्यारह सौ बावन (१९५२), आदेय - अनादेय से गुणा करने पर (११५२४२= २३०४) तेईस सौ चार और यशःकीर्तिअयशः कीर्ति से इन तेईस सौ चार को गुणा करने पर (२३०४x२= ४६०८), छियालीस सौ आठ भंग होते हैं । यानि भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा कोई किसी रीति से उनतीस प्रकृतियों को बांधता है और कोई किसी रीति से बांधता है । जिससे उनतीस प्रकृतिक बंध ४६०८ प्रकार से होता है ।
इन्हीं उनतीस प्रकृतियों में उद्योत को मिलाने पर तीस प्रकृतियाँ होती हैं और वे तिर्यंच पंचेन्द्रिययोग्य बांधने पर बंधती हैं । उनके गंधक भी उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान की तरह चारों गति वाले जीव होते हैं । तीस प्रकृतिक बंधस्थान भी पूर्व की तरह छियालीस सौ आठ प्रकार से होता है ।
सब मिलाकर तिर्यंच पंचेन्द्रिय के तीन बंधस्थानों के भंग नौ हजार दो सौ सत्रह (६२१७) होते हैं और उनमें एकेन्द्रिय के चालीस
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