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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४६,५०
शब्दार्थ-अथिरासुमच उरसं-अस्थिर, अशुभ, समचतुरस्र, परघायदुर्गपराघातद्विक, तसाइ -त्रसदशक, धुवांधी-ध्र वबंधिनी, अजसपणिदिअयशःकोति, पंचेन्द्रियजाति, विउव्वाहारग-वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, सुभखगइ-शुभ विहायोगति, सुरगइया-देवगतिक-देवगति सहचारी।
गाथार्थ-अस्थिर, अशुभ, समचतुरस्रसंस्थान, पराघातद्विक, त्रसदशक, ध्र वबंधिनी प्रकृतियां, अयशःकीर्ति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, शुभ विहायोगति ये प्रकृतियां देवगति सहचारी हैं।
विशेषार्थ --गाथा में देवगति बंध-उदय सहचारी प्रकृतियों के नाम बताये हैं। उनको देवगति-बंध-उदयसहचारी होने के कारण का स्पष्टीकरण इस प्रकार है
अस्थिर, अशुभ, समचतुरस्रसंस्थान, पराघातद्विक-पराघात और उच्छ्वास, त्रसदशक तथा वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण और उपघात रूप ध्रुवबंधिनी नामनवक, अयश:कीति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, शुभ विहायोगति तथा गाथा में अनुक्त किन्तु देवगतिसहचारी होने से देवानुपूर्वी नाम ये बत्तीस प्रकृतियां देवगति के बंध के साथ बंध में और देवगति के उदय के साथ उदय में आती हैं। जब तीर्थंकरनामकर्म का बंध होता है तब तीर्थकरनामकर्म के बंध के साथ देवगति योग्य ये तेतीस प्रकृतियां बंध में समझना चाहिये। क्योंकि तीर्थकरनामकर्म के बंधकाल में मनुष्य अवश्य हो देवगतिप्रायोग्य और देव तथा नारक अवश्य मनुष्यगतियोग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं। ___अब देवगति में तीर्थंकरनामकर्म को बांधने पर उसके साथ बंधने वाली प्रकृतियों को बतलाते हैं। तीर्थंकरनाम को बंधसहभावी प्रकृतियां
बंधइ तित्थनिमित्ता मणुउरलदुरिसभदेवजोगाओ। नो सुहुमतिगेग जसं नो अजसथिराऽसुभाहारे ॥५०॥
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