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________________ ६८ पंचसंग्रह : १ तब बादर अथवा सूक्ष्म नामकर्म का बांध अथवा उदय होता है । इसी तरह पर्याप्त नामकर्म बंध या उदय में हो तब यशःकीर्ति आदि और देवादि गतिनामकर्म बंध या उदय में हो तब वैक्रियद्विक आदि प्रकृतियां बंध और उदय में प्राप्त होती हैं । तथा अबाधाकाल बीतने पर उदय समय को प्राप्त हुई कर्म प्रकृतियों का उदय होता है और उस उदय के दो प्रकार हैं-प्रदेश से और अनुभाग से । अर्थात् अबाधाकाल का क्षय होने से उदय समय को प्राप्त हुई कर्म प्रकृतियां प्रदेशोदय द्वारा और अनुभागोदय (रसोदय) द्वारा, इस तरह दो प्रकार से उदय में आती हैं। उनमें से अनुदयवती स्वस्वरूप से फल प्रदान करने में असमर्थ-कर्मप्रकृतियों का अबाधाकाल क्षय होने के बाद उनके दलिक का उदयवतीस्वरूप-में फल देने में समर्थ-प्रकृति में प्रतिसमय स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रमित करके अनुभव करना उसे प्रदेशोदय कहते हैं और वह अनुपशांत प्रकृतियों का ही होता है-'पएसओअणुवसंत पगईणं ।' किन्तु उपशान्त प्रकृतियों का नहीं होता है । तथा 'अणुभागओ उ निच्चोदयाण' अर्थात् अनुभागोदय का विपाकोदय-स्वस्वरूप में अनुभव करना, यह अर्थ है और वह सदैव ध्र वोदया प्रकृतियों का ही होता है। शेष अध्र वोदया प्रकृतियों का विपाकोदय भजनीय है अर्थात् विपाकोदय कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं होता है---'सेसाण भइयव्वो' और प्रदेशोदय जिसका अपरनाम उदीरणा है, वह विपाकोदय हो तभी प्रवर्तित होता है अन्यथा प्रवर्तित नहीं होता है। इसलिये इसके लिये पृथक् से विचार नहीं किया है। ___अब देवगति के बंध अथवा उदय के साथ संभव बंध अथवा उदय प्रकृतियों का निर्देश करते हैं। देवगति-बंध-उदय-सहचारी प्रकृतियां अथिरासुभचउरंसं परघायदुगं तसाइ धुवबंधी। अजसपणिदि विउव्वाहारग सुभखगह सुरगइया ॥४६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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