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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६-३०
बारस-बारह, दुगोदएहि-दो के उदय में, भंगा-भंग, चउरो--चार, य-और, संपराएहि-कषायों के, सेसा-शेष, तेच्चिय-वे ही, भंगा-भंग, नवसय छावत्तरा–नौ सौ छियत्तर, एवं-इसी प्रकार ।
गाथार्थ-चार के बंध में भी दो के उदय के बारह भंग जानो। बंधक के भेद के होने वाले उन भंगों को मिलाने से पाँच कम एक हजार उदयविकल्प होते हैं।
दो के उदय में बारह भंग और चार कषायों के चार भंग होते हैं । शेष तो जो पूर्व में कहे वे ही भंग होने से नौ सौ छियत्तर भंग होते हैं।
विशेषार्थ-कितने ही आचार्य चार का बंध जितने काल होता है, उसके आद्यकाल में वेद का उदय मानते हैं । अतः उनके मत से चार के बंध में भी संज्वलन चार कषाय को तीन वेद के साथ गुणा करने पर दो के उदय के बारह भंग होते हैं । अर्थात् पाँच के बंध
और दो के उदय में जो बारह भंग बताये हैं वही बारह भंग चार के बंध और दो के उदय में भी होते हैं। उदयगत प्रकृतियों में कुछ भी अंतर नहीं होने पर भी बंध के भेद से भिन्न हैं। पहले के बारह भंग पाँच के बंध सम्बन्धी हैं और यहाँ कहे बारह भंग चार के बंध सम्बन्धी हैं । इसलिये बंध के भेद से होने वाले उन बारह विकल्पों को पूर्व के उदयगत विकल्पों में मिलाने पर पाँच कम एक हजार यानि नौ सौ पंचानवै विकल्प होते हैं।
यदि बंधस्थान के भेद से अन्तर की विवक्षा न करें तो पाँच के बंध एवं चार के बंध तथा दो के उदय में होने वाले भंग एक ही स्वरूप वाले हैं । इसलिये सब मिलाकर दो के उदय के भंग बारह ही होते हैं तथा बंधस्थान के भेद से एक के उदय के भंग भी एक स्वरूप वाले होने से चार ही होते हैं। जिससे सोलह भंग पूर्वोक्त उदय के नौ सौ साठ विकल्पों में मिलाने पर नौ सौ छियत्तर उदयविकल्प होते हैं।
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