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________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११४,११५, ११६ २२५ तेवीसूणा सत्तरस वज्जिया अहव सत्तअहियाइं । पंचासीइसयाई उदयपयाइं तु शब्दार्थ - अट्ठट्ठी- अड़सठ, बत्तीसा - बत्तीस, बत्तीसा - बत्तीस, स-साठ, एव – ओर, बावन्ना – बावन, चउयाला - चवालीस, चडयालाचवालीस, बीसा - बीस, मिच्छाउ – मिथ्यात्व आदि गुणस्थानों में, पयधुवगा - ध्रुवपद । मोहस्स ॥ ११६ ॥ तिष्णिसया बावण्णा - तीन सौ बावन, मिलिया - जोड़ने पर, चउवीसताडिया - चौबीस से गुणा करने पर, एए— ये, बायरउदयपएहि - बादरसंपरायगुणस्थान के उदयपदों, सहिया–सहित, उ ओर, गुणेसु – गुणस्थानों में, पयसंखा - पद संख्या । तेवीसूणा - तेईस कम, सत्तरसवज्जिया - सत्रह रहित, अहव — अथवा, सत्तअहियाइं - सात अधिक, पंचासीइसयाई--पचासी सो, उदयपयाइं - उदयपद, तु — और, मोहस्स — मोहनीय कर्म के । - गाथार्थ - अड़सठ, बत्तीस, बत्तीस, साठ, बावन, चवालीस, चवालीस, एवं बीस अनुक्रम से मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में ध्रुवपद होते हैं । इनका जोड़ करने पर ये तीन सौ बावन होते हैं और उन्हें चौबीस से गुणा कर बादरसंप रायगुणस्थान के उदयपद मिलाने पर गुणस्थानों की पद संख्या होती है । तेईस न्यून पचासी सौ अथवा सत्रह रहित पचासी सौ अथवा सात अधिक पचासी सौ मोहनीय कर्म के उदयपद होते हैं । विशेषार्थ - इन तीन गाथाओं में प्रत्येक गुणस्थान का अपेक्षा मोहनीय कर्म के उदयपद बताकर कुल उदयपदों की संख्या बतलाई है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है 'अट्ठट्ठी बत्तीसा ..इत्यादि अर्थात् गाथोक्त संख्या को अनुक्रम से मिथ्यात्वादि गुणस्थानों के साथ योजित करने पर उस-उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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