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________________ २२४ पंचसंग्रह : १० हैं । उनके पद चौबीस होते हैं । इन अधिक चौबीस पदों को उनहत्तर सौ सैंतालीस में मिलाने पर उनहत्तर सौ इकहत्तर (६६७१) पर होते हैं । कितने ही आचार्य वेद के बंध और उदय का साथ ही विच्छेद मानते हैं । उनके मत से पांच के बंध, दो के उदय में चौबीस पद होते हैं और पुरुषवेद के बंध उदय का साथ ही क्षय होने के बाद चार आदि के बंध में एक के उदय में चार आदि पद होते हैं । कितनेक आचार्य पुरुषवेद का बंधविच्छेद होने के बाद भी अत्यल्प समय के लिये उसका उदय मानते हैं । उनके मत से पांच के बंध, दो के उदय में चौबीस पद और चार के बंध दो के उदय में भी चौबीस पद होते हैं । पश्चात् वेद का उदय उपरत होने के बाद चार के बंध में एक के उदय में चार आदि पद तो ऊपर कहे अनुसार ही होते हैं । मतान्तर से इस तरह होने वाले चौबीस पदों को मिलाने से उनहत्तर सौ इकहत्तर पद होते हैं । उक्त कथन का सारांश यह है कि बंधक जीवों के भेद से सामान्यतः मोहनीय कर्म की उनहत्तर सौ चालीस (६६४० ), उनहत्तर सौ सैंतालीस ( ६९४७ ) और उनहत्तर सौ इकहत्तर (६६७१) पद संख्या होती हैं। इस प्रकार सामान्यतः मोहनीयकर्म के उदयस्थानों को पदसंख्या का निरूपण करने के बाद अब गुणस्थानों की अपेक्षा गुणस्थान के भेद से उदय पद की संख्या का निरूपण करते हैं । गुणस्थानापेक्षा मोहनीयकर्म की उदयपद संख्या अट्टी बत्तीसा बत्तीसा सहिमेव बावन्ना । पयधुवगा ||११४ ॥ चउयाला चउयाला वीसा मिच्छाउ तिष्णिसया बावण्णा मिलिया चउवीसताडिया एए । बायरउदयपएहि सहिया उ गुणेसु पयसंखा ॥११५॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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