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________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३५,१३८,१३६ ३१७ छब्बीस प्रकृतिक तथा गाथा में आगत 'उ-तु' शब्द अधिक अर्थ का सूचक होने से सासादनभाव में वर्तमान बादर एकेन्द्रियादि पाँच जीवस्थानों में मात्र अट्ठाईस प्रकृतिक एक ही सत्तास्थान होता है । करण-अपर्याप्त कितने ही संज्ञी जीवों में सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान, छह प्रकृतिक आदि चार उदयस्थान और चौबीस प्रकृतिक आदि सत्तास्थान होते हैं। यह अर्थ अधिक समझना चाहिये। क्योंकि करणअपर्याप्त संज्ञी को चौथा गुणस्थान भी होता है। जिससे उनमें सत्रह प्रकृतिक बंध, छह, सात, आठ और नौ प्रकृतिक इस तरह चार उदयस्थान और अट्ठाईस, चौबीस, बाईस और इक्कीस प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान संभव हैं। इस प्रकार से जीवस्थानों में मोहनीय कर्म के बंध, उदय और सत्तास्थानों को जानना चाहिए । अब नामकर्म के बंधादि स्थानों का विचार करते हैं। जीवस्थानों में नामकर्म के बंधादि स्थान सण्णिम्मि अठ्ठऽसणिम्मि छाइमा तेऽट्ठवीस परिहीणा। पज्जत्तविगलबायरसुहमेसु तहा अपज्जाणं ॥१३७॥ इगवीसाई दो चउ पण उदया अपज्ज सुहम बायराणं । सण्णिस्स अचउवीसा इगिछडवीसाइ सेसाणं ॥१३८॥ तेरससु पंच संता तिण्णधुवा अट्ठसीइ बाणउइ । सण्णिस्स होति बारस गुणठाणकमेण नामस्स ॥१३६॥ शब्दार्थ-सण्णिम्मि-संज्ञी में, अट्ठ-आठ, असणिम्मि-असंज्ञी में, छाइमा-आदि के छह, तेऽवीस-वे अट्ठाईस प्रकृतिक के, परिहोणासिवाय, पज्जत्त-पर्याप्त, विगल-विकलेन्द्रिय, बायरसुहुमेसु-बादर सूक्ष्म एकेन्द्रिय में, तहा--तथा, अपज्जाणं-अपर्याप्तों में ।। इगवीसाई-इक्कीस प्रकृतिक आदि, दो-दो, चउ-चार, पण-पांच, उदया-उदय स्थान, अपज्जसुहमवायराणं-अपर्याप्त सूक्ष्म बादर के, सणिस्स For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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