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________________ पंचसंग्रह : १० को एक साथ क्षय करता है, तत्पश्चात् नपुसक वेद, स्त्रीवेद, हास्यषट्क, पुरुषवेद और संज्वलन क्रोध, मान, माया को अनुक्रम से क्षय करता है। सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान वाला संज्वलन लोभ का क्षय करता है । तीन, एक, तीन, चार में पांच, तीन, ग्यारह, चार और तीन इस प्रकार मिथ्यात्व से लेकर उपशांतमोहगुणस्थान तक अनुक्रम से सत्तास्थान होते हैं। विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में मोहनीयकर्म की प्रकृतियों के सत्ताविच्छेद के गुणस्थानों का संकेत करने के साथ प्रत्येक गुणस्थान में संभव सत्तास्थानों को बतलाया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार _ 'अणमिच्छमीससम्माण अविरया अप्पमत्त जा खवगा'-अर्थात् अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीय इन सात प्रकृतियों को चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सातवें अप्रमत्तसंयतगुणस्थान तक के जीव क्षय करते हैं । अर्थात् उक्त चार गुणस्थानों में से किसी भी गुणस्थान में वर्तमान जीव इस सप्तक का क्षय करते हैं और उनमें भी पहले अनन्तानुबंधि-कषायचतुष्क का और उसके बाद दर्शनत्रिक का क्षय करते हैं। जिससे अविरत आदि गुणस्थानों में जब तक सप्तक का क्षय न हो तब तक उसकी सत्ता होती है । तत्पश्चात्, सर्वथा सत्ता नहीं होती है। 'समयं अट्ठकसाए नियट्टि नासेइ' अर्थात् क्षपकश्रेणिवर्ती अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क और प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क इन आठ कषायों का एक साथ सत्ताविच्छेद होता है और उसके बाद अनुक्रम से नपुसकवेद, स्त्रीवेद, हास्यषट्क, पुरुषवेद और संज्वलन क्रोध, मान, माया का विच्छेद होता है। इस क्रम से क्षपकश्रेणि में वर्तमान जीव नौवें गुणस्थान में मोहनीयकर्म की बीस प्रकृतियों का क्षय करता है- 'नपुसइत्थी कमा छक्क पुवेयं कोहाइ नियट्टि नासेइ' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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