________________
सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३६,३७
७१
गाथार्थ-आठ, सात, छह, चार, तीन, दो और एक अधिक बीस, तेरह, बारह, ग्यारह तथा पांच से लेकर एक तक कुल पन्द्रह सत्तास्थान होते हैं।
विशेषार्थ-मोहनीय के पन्द्रह सत्तास्थान होते हैं। वे इस प्रकार हैं-अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक ।
इन सत्तास्थानों में गर्भित प्रकृतियों के नाम बंधविधिप्ररूपणाअधिकार में कहे गये हैं । अब इन सत्तास्थानों को गुणस्थानों में घटित करते हैं। गुणस्थानों में मोहनीयकर्म के सत्तास्थान
अणमिच्छमीससम्माण अविरया अप्पमत्त जा खवगा। समयं अठुकसाए नपुसइत्थी कमा छक्क ॥३६॥ पुवेयं कोहाई नियट्टि नासेइ सुहुम तणुलोभं। तिण्णेगतिपण चउसु तेक्कारस चउति संताणि ॥३७॥
शब्दार्थ-अणमिच्छमीससम्माण-अनन्तानुबंधि, मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्वमोहनीय, अविरया-अविरत, अप्पमत्त-अप्रमत्तसंयत, जा-तक, खवगा-क्षपक, समयं-एक साथ, अट्ठकसाए-आठ कषाय, नपुसइत्थीनपुसक, स्त्रीवेद, कमा-क्रम से, छक्क-हास्यषट्क को।
पुवेयं-पुरुषवेद, कोहाइ-क्रोधादि, नियटि-अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान वाला, नासेइ-क्षय करता है, सुहुम-सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान वाला, तणुलोभं-संज्वलन लोभ को, तिणेगतिपण-तीन, एक, तीन, पांच, चउसुचार में, तेक्कारस-तीन, ग्यारह, चांति -चार, तीन, संताणि-सत्तास्थान ।
गाथार्थ-अविरत से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के जीव अनन्तानुबंधि, मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्वमोहनीय के क्षपक हैं। अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान वाला आठ कषायों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org