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________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २७६ मनुष्य तथा तिर्यंच मात्र देवगति योग्य ही बंध करते हैं। इस दृष्टि को ध्यान में रखकर बंधादि स्थानों और उनके संवेध का विचार करना चाहिये। ___ सम्यगमिथ्यादृष्टिगुणस्थान में अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक ये दो बंधस्थान होते हैं । सम्यगमिथ्यादृष्टि तिर्यंच और मनुष्य देवगति योग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करते हैं। उसके स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ और यशःकीर्ति-अयशःकीर्ति के भेद से आठ भंग होते हैं। देव और नारकों के मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध होता है। इसके भी ऊपर कहे अनुसार आठ भंग होते हैं । क्योंकि परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों का इस गुणस्थान में बंध नहीं होता है, जिससे अन्य कोई भंग नहीं होते हैं । ___ उदयस्थान उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक इस प्रकार तीन होते हैं। उनमें से तिर्यंचों के तीस, इकत्तीस प्रकृतिक, मनुष्यों के तीस प्रकृतिक, नारकों के उनतीस प्रकृतिक और देवों के भी उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इनमें से उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान के देवापेक्षा सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय और यशःकीर्ति-अयश:कीर्ति के भेद से आठ भंग होते हैं और नारकापेक्षा एक ही भंग होता है। क्योंकि उनको सुभग आदेय और यशःकीति का उदय नहीं होता है। सब मिलाकर नौ भंग होते हैं। तीस प्रकृतिक उदय के तिर्यंच पंचेन्द्रियों की अपेक्षा संपूर्ण पर्याप्तियों से पर्याप्तावस्था के जो ग्यारह सौ ब वन भंग होते हैं, उन्हीं को यहाँ भी समझना चाहिये, किन्तु भाषापर्याप्ति होने के पहले उद्योत के उदय के १ दिगम्बर साहित्य में भी इसी प्रकार मिश्र गुणस्थान में बंधस्थान और । उदयस्थान माने हैं - मिस्सम्मि ऊणतीसं अट्ठावीसा हवंति बंधाणि । इगितीसूणत्तीसं तीसं च य उदयठाणाणि ॥ -दि० पंचसंग्रह सप्ततिका, गा० ४०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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