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________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६,१०० २०१ का बंध कर सकता है और पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस प्रकृतिक इन चार उदयस्थानों में वर्तमान वैक्रिय देशविरत मनुष्य उनतीस का बंध करता है। वक्रिय मनुष्य को यहाँ तीस प्रकृतियों का उदय नहीं होता है। क्योंकि तीस प्रकृतियों का उदय उद्योत के साथ होता है और मनुष्य में उद्योत का उदय आहारकशरीरी और वैक्रियशरीरी यति को ही होता है किन्तु संयतासंयत (देशविरत) को नहीं होता है। __ प्रमत्तसंयत को सामान्य से तीस प्रकृतियों का उदय होता है और वक्रिय तथा आहारक संयत को पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृति रूप पांच उदयस्थान होते हैं। प्रत्येक उदयस्थान में वर्तमान देवगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों को बांध सकता है। तीस प्रकृतियों के उदय में वर्तमान सामान्य अप्रमत्तसंयत उनतोस, तीस प्रकृतिक उदय में रहते वक्रिय शरीरी अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण में वर्तमान जीव भी पहले कहे गये गये अनुसार उनतीस प्रकृतियों का बंध करता है। __ आहारकशरीरी अप्रमत्तसंयत उनतीस प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं। क्योंकि आहारकशरीरनाम का बंध करने के बाद उसकी बंधयोग्य भूमिका में आहारकशरीरनाम का बंध करता ही रहता है। जिससे आहारकशरीरी अत्रमत्तसंयत देवगति योग्य आहारकद्विक के साथ तीस अथवा आहारकद्विक और तीर्थंकरनाम के साथ इकत्तीस प्रकृतियों का बंध करता है। __सामान्य से उनतीस प्रकृतियों के बंध में सात सत्तास्थान होते हैं। जो इस प्रकार हैं-तेरानवे, बानव, नवासी, अठासी, छियासी, अस्सी और अठत्तर प्रकृतिक । इनमें विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रिययोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध करते पर्याप्त-अपर्याप्त एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय को इक्कीस प्रकृतियों के उदय में बानवै, अठासी, छियासी, अस्सी और अठत्तर प्रकृतिक ये पांच सत्तास्थान होते हैं । इसी प्रकार चौबीस, पच्चीस और छब्बीस प्रकृति रूप तीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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