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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५,१६
नीचगोत्र का बंध दूसरे गुणस्थान पर्यन्त एवं उच्चगोत्र का बंध दसवें गुणस्थान पर्यन्त होता है तथा पांचवें गुणस्थान तक नीचगोत्र का और चौदहवें गुणस्थान तक उच्चगोत्र का उदय होता है तथा दोनों गोत्रकर्म की सत्ता चौदह गुणस्थानों में ही होती है । तात्पर्य यह है कि नीचगोत्रकर्म का बंध सासादन गुणस्थान तक और उदय देशविरत गुणस्थान पर्यन्त तथा उच्चगोत्रकर्म का बंध सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक और उदय अयोगिकेवली गुणस्थान तक होता है एवं दोनों गोत्रकर्म की सत्ता सभी चौदह गुणस्थानों में होती है।
इसी कारण गोत्रकर्म के संवेध भंग इस प्रकार होते हैं
उदयप्राप्त उच्च गोत्र हो या नीचगोत्र और जो उदयप्राप्त हो उसी का बंध हो या इतर उदय-अप्राप्त का बंध हो और इन सब में सत्ता उच्चगोत्र, नीचगोत्र दोनों की हो तो चार भंग होते हैं और वे दूसरे से लेकर पांचवें गुणस्थान तक जानना चाहिये तथा यदि बंध, उदय और सत्ता इन तीनों स्थानों में नीचगोत्र हो तो उसका पहला भंग होता है एवं गोत्रकर्म का बंधविच्छेद होने के बाद उपशांतमोहादि गुणस्थान में उच्चगोत्र के उदय में दो भंग होते हैं। इस तरह कुल मिलाकर सात भंग होते हैं, जो इस प्रकार हैं
१. नीचगोत्र का बंध, नीचगोत्र का उदय, नीचगोत्र की सत्ता । यह विकल्प उच्चगोत्र की उद्वलना करने के बाद तेजस्कायिक-वायुकायिक जीवों में और उस-उस भव में से निकलकर दूसरे भव में उत्पन्न हुए शेष तिर्यंचों में भी अल्पकाल (अन्तर्मुहूर्त काल) होता है ।
२. नीचगोत्र का बंध, नीचगोत्र का उदय, उच्च-नीचगोत्र की सत्ता ।
३. नीचगोत्र का बंध, उच्चगोत्र का उदय, उच्च-नीचगोत्र की सत्ता । यह दोनों विकल्प मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थान में होते हैं, मिश्र आदि गुणस्थानों में नहीं होते हैं, क्योंकि उनमें नीच गोत्र का बंध नहीं होता है।
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