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- पंचसंग्रह : १० ___ इस प्रकार से दर्शनावरणकर्म के बंध, उदय और सत्तास्थानों का संवेध जानना चाहिये । अब गोत्रकर्म के संवेध विकल्पों का कथन करते हैं। गोत्रकर्म के संवेध भंग
बंधो आदुग दसमं उदओ पण चोद्दसं तु जा ठाणं । निच्चुच्चगोत्तकम्माण संतया होइ सव्वेसु ॥१५॥ बंधइ ऊइण्णयं चिय इयरं वा दोवि संत चउ भंगा।
नोएसु तिसुवि पढमो अबंधगे दोणि उच्चुदए ॥१६॥ शब्दार्थ-बंधो-बंध, आदुग दसमं-दूसरे और दसवें गुणस्थान तक, उदओ---उदय, पण-पांचवें, चोदृसं-चौदहवें, तु-और, जा ठाणंगुण स्थान तक, निच्चच्चगोत्तकम्माण-नीच और उच्च गोत्र कर्म का, संतया -सत्ता, होइ-होती है, सन्वेसु-सभी गुणस्थानों में ।
बंधइ- बाँधे, ऊइण्णयं-उदय-प्राप्त, चिय-इसी प्रकार, इयरं-इतर (उदय-अप्राप्त), वा-अथवा, दोवि -दोनों ही, संत-सत्ता, च उभंगा-चार भंग, नोएसु-नीच गोत्र में, तिसुवि-तीनों में, पढमो-पहला, अबंधगेअबंधक के, दोण्णि-दो, उच्चुदए-उच्च गोत्र के उदय में।
गाथार्थ-नीच और उच्च गोत्र का बंध अनुक्रम से, दूसरे और दसवें गुणस्थान पर्यन्त और उदय पाँचवें तथा चौदहवें गुणस्थान तक होता है और सत्ता सभी गुणस्थानों में होती है।
उदयप्राप्त अथवा इतर गोत्रकर्म बांधे और दोनों गोत्र सत्ता में हों, उसके चार भंग होते हैं। तीन में नीचगोत्र और पहला भंग होता है, और अबंधक के उच्चगोत्र के उदय में दो भंग होते हैं।
विशेषार्थ-उक्त दो गाथाओं में गोत्रकर्म के संवेध का निर्देश करने के प्रसंग में पहले बंध, उदय और सत्ता के स्वामियों को गुणस्थानापेक्षा बतलाकर फिर संवेध भंगों को बतलाया है।
बंध आदि के स्वामी इस प्रकार हैं -
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