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________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार अष्ट करणों की प्ररूपणा करने के पश्चात् अब सप्ततिका प्रकरण द्वारा संवेधगत बंधविधान का कथन करने के लिए ग्रन्थकार निर्देश करते हैं मूलुत्तरपगईणं, साइ- अणाई - परूवणानुगयं । भणियं बंधविहाणं, अहुणा संवेहगं भणिमो ॥ १ ॥ शब्दार्थ - मूलुत्तरपगईणं - मूल एवं उत्तर प्रकृतियों का, साइ- अणाईपरूवणाणुगयं - सादि-अनादि प्ररूपणागत, भणियं - कथन किया, बंधविहाणंबंधविधान, अहुणा - अब, संदेहगं - संवेध को, भणिमो कहूँगा । Ade -- गाथार्थ - पूर्व में सादि-अनादि प्ररूपणानुगत मूल और उत्तर प्रकृतियों के बंधविधान का कथन किया, अब संवेधगत (बंधविधान) को कहूँगा | विशेषार्थ - प्रकरणगत प्रतिपाद्य विषय का संकेत करने से यह गाथा प्रस्तावना रूप है कि अभी तक मूल एवं उत्तर प्रकृतियों के बंधविधान - प्रकृतिबंध, स्थितिबंधादिक के स्वरूप का सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुवादि प्ररूपणा के अनुरूप कथन किया तथा प्रासंगिक होने से बंधनकरण आदि आठ करणों की भी विस्तृत व्याख्या की । अब इसी बंधविधान के संवेध का यहाँ विचार करते हैं । तथा -7 जिस किसी मूल या उत्तर प्रकृति के बंध आदि होने पर अविरोधी रूप से जितनी मूल या उत्तर प्रकृतियों का उदय आदि होने एवं इसी प्रकार उदय होने पर संभव मूल और उत्तर प्रकृतियों के बंध आदि होने के निर्देश करने को संवेध कहते हैं । अब प्रतिज्ञानुसार सर्वप्रथम ग्रन्थकार मूल प्रकृतियों विषयक बंध का और बंध के साथ संवेध का निरूपण करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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