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पंचसंग्रह : १० ___अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में उनतीस एवं तीस प्रकृतिक ये दो उदयस्थान होते हैं। उनमें से उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान वैक्रिय और आहारक शरीरी को होता है। जिसका आशय यह है कि वैक्रिय और आहारक शरीर करने की शुरुआत तो छठे गुणस्थान में करता है, परन्तु उन दोनों शरीर के योग्य सभी पर्याप्तियां पूर्ण होने के बाद अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में जा सकता है । वैक्रिय या आहारक शरीर की अपर्याप्तावस्था में कोई जीव अप्रमत्तावस्था प्राप्त नहीं कर सकता है, मात्र उद्योत का उदय शेष रह सकता है। यानि कोई उद्योत का उदय होने के पहले जाता है और कोई उद्योत का उदय होने के बाद भी जाता है । जिससे वैक्रिय या आहारक शरीरी को अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में उद्योत के उदय बिना का उनतीस प्रकृतिक और उद्योत का उदयवाला तीस प्रकृतिक इस प्रकार दोनों उदस्थान होते हैं। और स्वभावस्थ संयत को तो एक तीस प्रकृतिक ही उदयस्थान होता है। तथा
अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय, उपशांतमोह और क्षीणमोह इन पाँच गुणस्थानों में तीस प्रकृति का उदय रूप एक ही उदयस्थान होता है । यद्यपि गाथा में इसका उल्लेख नहीं किया है किन्तु प्रसंगानुसार स्वयमेव इसका ग्रहण कर लेना चाहिए।
अयोगि केवली भगवान को आठ और नौ प्रकृति के उदय रूप दो उदयस्थान होते हैं। उनमें से सामान्य केवली के आठ प्रकृतियों और तीर्थंकर केवली के नौ प्रकृतियों का उदय होता है-'अट्ठो नवो अजोगिस्स ।'
बीस प्रकृतियों का उदय केवलिसमुद्घात में तीसरे, चौथे और पांचवें समय में सामान्य केवली को और उसी अवस्था अर्थात् केवलिसमुद्घात अवस्था और उन्हीं समयों में यानि तीसरे, चौथे और पांचवें समयों में तीर्थंकर केवली को तीर्थंकरनाम के साथ इक्कीस प्रकृतियों का उदय होता है तथा भव से भवान्तर जाते सभी संसारी
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