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सप्तनिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४१
गाथार्थ-नारक, तियंच और देव इन तीन गतियों में सात या आठ कर्म बँधते हैं, उदीरणा भी सात या आठ कर्म की होती है तथा तीनों में सत्ता और उदय में आठ कर्म होते हैं ।
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विशेषार्थ - मूल कर्म प्रकृतियों की अपेक्षा नरक, तियंच और देव इन तीन गतियों में प्रति समय सात या आठ कर्म बँधते हैं । इनमें जब आयुकर्म का बंध हो तब आठ कर्मों का बंध होता है । अन्यथा प्रति समय सात कर्मों का बंध होता रहता है |
उदीरणा भी सात या आठ कर्मों की होती है । अपनी-अपनी आयु की अन्तिम एक आवलिका सत्ता में शेष रहे तब उस एक आवलिका पर्यन्त सात की और शेष काल में आठ कर्मों की उदीरणा होती है तथा सत्ता और उदय नारक, तिर्यंच और देवों के आठों कर्मों का होता है क्योंकि उनको क्षपक या उपशम श्रेणि की प्राप्ति का अभाव होने से किसी भी समय सात या चार का उदय नहीं होता है । गुणभिहियं मणुसु सगलतसाणं च तिरियपडिवक्खा । मणजोगी छउमाइ व कायवई जह सजोगीणं ॥ १४१ ॥
शब्दार्थ - गुणभिहियं - गुणस्थानानुसार, मणुए सु - मनुष्यगति में, सगलतसाणं - पंचेन्द्रिय और त्रस में, च - और, तिरियपडिवक्खा – प्रतिपक्षी मार्गपात्रों में तिर्यंचगति के समान, मणजोगी - मनोयोगी में, छउमाइ - क्षद्मस्थ गुणस्थान, व- - और, कायवई- --काय और वचन योगी को, जह—यथा, समान, सजोगीणं-सयोगी के ।
गाथार्थ - मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति और त्रसकाय में गुणस्थानानुसार, प्रतिपक्ष मार्गणा में तिर्यंचगति के समान, मनोयोगी को छद्म गुणस्थान के समान और काययोगी, वचनयोगी को सयोगी के समान जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - मनुष्यगति में, इन्द्रिय मार्गणा के भेद पंचेन्द्रिय जाति में, काय मार्गणा के भेद सकाय में जैसे पूर्व में चौदह गुणस्थानों में
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